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402 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नैतिक नियमों (कर्मों) की अपवादात्मकता ओर निरपवादात्मकता की चर्चा के स्वर वेदों, स्मृति ग्रन्थों, पौराणिक साहित्य में स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं।
पश्चिमी नीति-चिन्तक तो अकाल के समय, जब भीख माँगने पर दाना भी न मिले तो क्षुधा तृप्ति के लिए चोरी करना जैसे अनैतिक कर्म को क्षम्य' कहता है और मिल इसे कर्तव्य मानता है। सिजविक सच बोलने को नैतिक कर्तव्य मानते हुए राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी कार्यवाहियों को गुप्त रचना उचित मानता है। अरविन्द घोष यद्यपि योगी थे, किन्तु उनकी भी मान्यता लगभग इसी प्रकार की थी, वे कहते हैं-किसी को क्या अधिकार है हमारे निजी जीवन के विषय में जानने का ? हम कौन-सी साधना करते हैं और किस प्रकार करते हैं, इस विषय में किसी को कुछ पूछना ही नहीं चाहिए और यदि वह अधिक आग्रह करता है तथा हम उसे योग्य पात्र नहीं समझते तो हमें मौन हो जाना चाहिए, अथवा टाल देना चाहिए।
अमेरिकन मनीषी टफ्ट के विचार तो और भी कठोर हैं। वह कहता है-जो नैतिक सिद्धान्त नैतिक प्रत्ययों का अर्थ यथार्थ परिस्थितियों से अलग हटकर करना चाहते हैं, वे वस्तुतः शून्य में विचरण करते हैं।'
नैतिकता की सापेक्षता-निरपेक्षता के विषय में डॉ. भोलानाथ तिवारी का कथन संतुलित है। वह लिखते हैं
नीति की कुछ बातें सामयिक महत्व की होती हैं और कुछ शाश्वत महत्व की। सामयिक नीति अस्थायी होती है और युग या काल की परिस्थिति के अनुकूल इसका विकास या ह्रास होता है तथा इसमें परिवर्तन होते हैं। सार्वकालिक या शाश्वत नीति में प्रायः परिवर्तन नहीं होता।
1. लोकमान्य तिलक : गीता रहस्य, कर्म जिज्ञासा, अध्याय 2 2. Leviathan. तुलना करिए-बुभुक्षितैः किं न करोति पापं। 3. यूटिलिटिरियेनिज्म, अध्याय 5, पृ. 95 4. नैतिक जीवन के सिद्धान्त, पृ. 59 5. Quoted by Shishir Kumar Gupta : Vision of India. 6. श्री सागरमल जैन : जैन, बौद्ध, गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग __1, पृ. 58