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अधिकार-कर्त्तव्य और अपराध एवं दण्ड / 381
मानव का यह अधिकार संसार के सभी समाजों, नैतिक और धार्मिक संस्थाओं द्वारा स्वीकृत है। यह अधिकार सार्वभौम है।
ईसामसीह ने thou shalt not kill कहकर इसी अधिकार को स्वीकृति प्रदान की है। मुस्लिम मत में भी यह स्वीकृत है और भारतीय सभ्यता-संस्कृति तथा धर्मों का प्राण भी यही है। इसीलिए अहिंसा को सार्वभौम कहा गया है। दण्डशास्त्र में भी हत्या (murder) तथा आत्महत्या (suicide) को दण्डनीय अपराध माना गया है और सभ्य संसार के सभी न्यायालय वधकर्ता (murderer) को दण्ड देते हैं।
(2) जीविकोपार्जन का अधिकार (Right to Livelihood)
जीवन के अधिकार के साथ ही जीविकोपार्जन का अधिकार संलग्न है। जीवित रहने के लिए मानव को भोजन, वस्त्र, आवास आदि की अनिवार्य आवश्यकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं, और इसके लिए वह किसी न किसी प्रकार का श्रम, व्यापार, धन्धा अथवा रोजगार करता है, जीविकोपार्जन का कोई न कोई उपाय करता है। __व्यक्ति का कर्तव्य है कि जीविकोपार्जन का नीतिसम्मत साधन अपनाए-ऐसा साधन जो अन्य लोगों के लिए बाधक न हो। अन्य लोगों का भी कर्तव्य है कि वे उसके जीविकोपार्जन में बाधक न बनें, जितना सम्भव हो सहयोगी ही बनें।
यह अधिकार भी सभी समाजों द्वारा स्वीकृत है। आचार्य हेमचन्द्र ने मार्गानुसारी के 35 बोलों में स्पष्ट कहा है कि सद्गृहस्थ न्याय नीति द्वारा जीविका उपार्जन करने वाला हो। भारत के प्राचीन सद्गृहस्थ का परिचय देते हुए भगवान महावीर ने कहा है-धम्मेणं चेच वित्तिं कष्पेमाण विहरेंति-धर्म के अनुसार (नीति के अनुसार) जीवन वृत्ति चलाते थे।
(3) चिकित्सा का अधिकार (Right of Remedy)
__ जीवन का अभिप्राय स्वस्थ जीवन है, रोगी जीवन नहीं। नीरोगी व्यक्ति ही नैतिकता का सुचारु रूप से पालन कर सकता है। अतः चिकित्सा का अधिकार भी जीवन के अधिकार से जुड़ा है। 1. हेमचन्द्र : योगशास्त्र, 1/47-56