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6 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीति, अनीति, दुर्नीति
मानव चरित्र की इन तीन प्रेरक शक्तियों के आधार पर नीति के भी तीन रूप हो जाते हैं- (1) नीति (morality), (2) अनीति ( immorality) और (3) दुर्नीति (non-morality)।
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नीति में तो शुभ (good) गर्भित रहता ही है । इसे सुनीति भी कह सकते हैं। इसमें दोनों के ही सुधार की, शुभ की भावना निहित रहती हैं । व्यक्ति स्वयं भी सदाचारी बना रहता है और दूसरे को भी सदाचारी बनाना चाहता है । इस प्रकार की नीति का आधार विवेक होता है ।
अनीति करने वाला व्यक्ति नीति और अनीति के भेद को तो जानता है, किन्तु नीति पर चल नहीं पाता । कषायों के आवेग में बह जाता है । उसके व्यवहार में क्रोध, मान, लोभ आदि कषाय प्रेरक के रूप में काम करते हैं ।
दुर्नीति वाले व्यक्ति का नीति से दूर का भी वास्ता नहीं होता । उसके व्यवहार में अति (over ) का तत्व बहुत प्रमुख होता है । वह अति साहसी (over-bold), अतिमानी (over-proudy) और अति लालची (overgreedy) होता है। ऐसा व्यक्ति, दूसरों का हित साधना तो दूर, स्वयं अपनी ही हानि कर लेता है । अति के कारण ऐसे व्यक्ति में मूर्खता भी आ जाती है, उसके काम मूर्खता भरे होते हैं ।
एक व्यक्ति कीचड़ में फंसा है। उसे सावधानीपूर्वक अपने पर कीचड़ का छींटा लगाये बिना कीचड़ से निकाल देना ' नीति' है । उसे निकालने के प्रयास में थोड़े छींटे अपने पर लगा लेना 'अनीति' है । उस व्यक्ति के साथ स्वयं भी उस कीचड़ में गिर जाना 'दुर्नीति' है ।
नीति का एक वचन है- 'शठं प्रति शाठ्यं', दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए। इसी को अंग्रेजी में (tit for tat policy) कहा गया है। यहां भी नीति के तीनों रूपों का प्रयोग हो सकता है । शठ को समझाने-बुझाने, उसके ऊपर उपकार करने, समय-असमय बीमारी आदि में उसकी सेवा करके उसे सुधारना, दुष्ट वृत्ति को मिटाना ' नीति' अथवा 'सुनीति' है। उसे किसी बड़े दुष्ट के चक्कर में फँसाकर सुधारने का प्रयास करना 'अनीति' है। स्वयं उसके साथ दुष्टता का व्यवहार ( behaviour) करना दुर्नीति है ।
नीति में अपना और दूसरे का - दोनों का ही उत्थान निहित है। अनीति और दुर्नीति में अपना पतन भी है, और दूसरों का पतन तो है ही । जो व्यवहार जो कार्य स्वयं को पतन की ओर ले जाए, वह नीतिपूर्ण नहीं हो सकता ।