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________________ 308 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान कराती है। (4) चक्षुइन्द्रिय के माध्यम से विभिन्न प्रकार के सुन्दर-असुन्दर रूपों का ज्ञान होता है। (5) श्रोत्रेन्द्रिय प्रिय-अप्रिय स्वरों-शब्दों को ग्रहण करती है। इन पांचों इन्द्रियों की रचना ही ऐसी है कि ये बाह्यमुखी बनी हुई हैं। स्पर्शन इन्द्रिय अनुकूल स्पर्श पाने को लालायित रहती है तो रसना इन्द्रिय मधुर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने को लपकती है। घ्राणेन्द्रिय सदा ही सुगन्ध सूंघना चाहती हैं, सेन्ट, परफ्यूम आदि का निर्माण इसी की तृप्ति के लिए हो रहा है। चक्षु इन्द्रिय सुन्दर रूपों-दृश्यों को देखने के लिए ललचाती है। श्रोत्रेन्द्रिय सदा ही प्रिय मधुर शब्द सुनना चाहती है। किन्तु इन इन्द्रियों की बाह्यमुखी प्रवृत्ति अध्यात्म-साधना में तो विघ्न है ही, अनैतिक भी है। किसी स्त्री के सुन्दर मुख को टकटकी लगाकर देखना कितना अनैतिक है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों को भी खुला छोड़ देने का दुष्परिणाम मानव को कटुफल के रूप में भोगना पड़ता है। श्रमण के लिए आवश्यक है कि वह इन पांचों इन्द्रियों का निग्रह करे, इन्हें इनके विकारों और विषयों में प्रवृत्ति न करने दे। नीतिशास्त्र की अपेक्षा भी विषय-विकार नैतिक अधःपतन के मार्ग हैं। (11-14) कषाय-विवेक कषाय चार हैं-(1) क्रोध, (2) मान (3) माया (कपट) और (4) लोभ। धर्म की दृष्टि से तो कषाय त्याज्य हैं ही, सामाजिक, नैतिक यहां तक शिष्टाचार की दृष्टि से भी यह अनाचरणीय हैं। क्रोध को तो शास्त्रों में और यहां तक कि सामान्य जनता द्वारा चंड, रुद्र कहा गया है। मान सदा अवनतिकारक होता है, कपट हृदय की सरलता का नाश कर देता है। लोभी व्यक्ति सदैव अनादर का पात्र बनता है। यदि लोभ की और इसी प्रकार इन चारों कषायों की तीव्रता हुई तो व्यक्ति को अनैतिक बनते देर नहीं लगती। दशवैकालिक सूत्र में इन चारों कषायों को पाप बढ़ाने वाली कहा गया है। क्रोध आत्मा में आत्मौपम्य भाव या वत्सलता, जो जीवन का अमृत है उसे नष्ट करता है। मान से विनय जो जीवन की रसिकता है, जिससे व्यक्ति शिष्ट और नैतिक समझा जाता है, उस विनय का ही नाश हो जाता है। माया (कपट) द्वारा मित्रता जो जीवन का मधुर अवलम्बन है, वह आधार ही
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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