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________________ नैतिक उत्कर्ष / 283 (2) कौत्कुच्य - विदूषकों जैसी विकृत चेष्टाएँ और वचन बोलना । ( 3 ) मौखर्य - अधिक बकवास करना, बढ़ा चढ़ाकर बात कहना । (4) संयुक्ताधिकरण - बिना आवश्यकता के हिंसक शस्त्रों को संयुक्त करके रखनाः जैसे बन्दूक में गोली भर कर रखना । (5) उपभोग - परिभोगातिरेक- उपभोग- परिभोग की सामग्री को अधिक मात्रा में संग्रह करना । यथा- एक स्कूटर ही प्रयोग में आता है फिर भी दूसरा खरीद लेना, अथवा कम वस्त्र ही पहने जाते हैं; किन्तु फिर भी अधिक वस्त्रों का संग्रह करना । आवश्यकता से अधिक साधनों का संग्रह करना इस व्रत का अतिचार है। वस्तुस्थिति यह है कि नैतिक व्यक्ति अति गम्भीर होता है। गम्भीरता के अभाव में न नैतिकता सध सकती है और न उसमें प्रगति हो सकती है । अतः वह न व्यर्थ की बकवास करता है, न किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर ही बोलता है; वह नपे-तुले शब्दों में गम्भीरतापूर्वक वजनदार बात कहता है । उसके जीवन में छिछोरपन नहीं होता, अतः वह कुत्सित वचन भी नहीं बोलता और वैसी चेष्टाएँ भी नहीं करता । उसके जीवन का ध्येय 'सादा जीवन, उच्च विचार' हो जाता है अतः वह अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही उपभोग - परिभोग की सामग्री तथा साधन रखता है। शिक्षाव्रत डा. दयानन्द भार्गव के शब्दों में 'शिक्षाव्रत हृदय की पवित्रता पर अधिक बल देते हैं ।" बात भी ऐसी ही है । शिक्षाव्रत व्रती गृहस्थ की आध्यात्मिक साधना से मुख्यतया सम्बन्धित हैं । वे सद्गृहस्थ को श्रमण - जीवन की शिक्षा देने वाले हैं। इसीलिए वह इनका बार-बार आचरण करता है । नीति के शब्दों में शिक्षाव्रत नैतिक उत्कर्ष से व्यक्ति को नैतिक चरम की ओर ले जाने वाले सोपान हैं। यह चार हैं - (1) सामायिक ( 2 ) देशावकाशिक (3) प्रोषधोपवास और (4) अतिथि संविभाग । 1. Shikshavratas emphasise inner purity of heart. -D.N. Bhargava: Jaina Ethics, p. 102
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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