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नीतिशास्त्र की पृष्ठभूमि / 3
कुछ नहीं है, विवेक-चिन्तन-मनन-प्रज्ञा और बुद्धि की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है; समझदारी का भी विशेष महत्व होता है।
सांसारिक पर्यावरण में मानव का जीवन बहुत ही जटिल है। यह न तो सरल सीधा राजमार्ग (straight like highway) है, न पर्वत का सीधा चढ़ाव (ascent), न घाटी का उतार (descent) है, अपितु यह सागर की लहर (seawave) के समान गतिशील और उतार-चढ़ाव से युक्त है।
उसके जीवन की गति सदैव एक जैसी नहीं रहती। कभी चढ़ाव (ups) आते हैं तो कभी उतार (downs) और कभी कोई अवरोध (speed breaker) आ जाता है तो कभी कोई मोड़ (turn) भी आ जाता है।
कुछ अवरोध और मोड़ तो इतने खतरनाक (sharp) और प्रबल होते हैं कि मानव की गति लड़खड़ा जाती है, रुक ही जाती है।
उस समय वह सोचने को विवश हो जाता है कि क्या करना चाहिए? कैसे, किधर से और किस प्रकार चलना उचित है? कौन-सी दिशा पकड़ी जाय कि सुरक्षित अपने लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सके।
ऐसी स्थिति में मानव की अन्तश्चेतना में हलचल होती है। उसके मन में. मनन और बुद्धि में चिन्तन चलता है; फिर गहराई से अपनी शक्ति-सामर्थ्य-योग्यता और परिस्थितियों तथा सामने आये अवरोध का अपने विवेक से विश्लेषण करके अपने करणीय कर्तव्य को निश्चित करना पड़ता है, किसी एक निर्णय पर पहुँचना आवश्यक हो जाता है।
वह निर्णय भी आधारहीन और अनर्गल नहीं होता। उसका कोई निश्चित आधार (base) और मानदण्ड (measuring rod) होता है। उसी मानदण्ड और आधार के अनुसार ही फैसला किया जाता है, करणीय कर्त्तव्य का निश्चय होता है, अकरणीय-अकर्तव्य का भी विवेक होता है; और मानव अपने मार्ग में आये उन अवरोधों को पार करता हुआ जीवन में आगे बढ़ता है, लक्ष्य की ओर प्रगति करता है।
नीति का आधार
निर्णय करने का मानदण्ड क्या हो, आधार कैसा हो, इस विषय में आचार्यश्री का उक्त कथन सभी के लिए पथ प्रदर्शक (directive principle) है, प्रकाश स्तम्भ (light house) के समान पथ आलोकित करने वाला है, जिससे आलोक में कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ की मीमांसा करके