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170 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
___संत पाल इसे ईसा (Christ) कहता है और महात्मा गांधी ने इसकी अभिज्ञा राम दी है। समस्त धार्मिक संतहृदय व्यक्तियों ने इसे अपने-अपने इष्ट देवों के नाम से पुकारा है। ___ आदम स्मिथ के शब्दों में-जब मैं स्वयं अपने आचरण की जाँच करने की चेष्टा करता हूं तो मानो अपने को दो व्यक्तियों में विभाजित कर देता हूँ। परीक्षक और न्यायाधीश के रूप में मैं उस दूसरे व्यक्ति से भिन्न का प्रतिनिधित्व करता हूं जिसके आचरण की जाँच हो रही है। प्रथम द्रष्टा है, दूसरा कर्ता है। प्रथम निर्णायक है, दूसरा निर्णीत व्यक्ति है।'
यहाँ यह विचार करना है कि वह कौन सी शक्ति है। जिसे शेफ्ट्सबरी ने नैतिक समीक्षक', आदम स्मिथ ने द्रष्टा कहा और अन्य संतों ने अपना-अपना इष्टदेव बताया।
सामान्य भाषा में इसे अन्तःकरण कहा जा सकता है और विशेष रूप में अन्तरात्मा। अन्तरात्मा के सांख्यदर्शन में चार भेद माने जाते हैं-मन, चित्त. बुद्धि और अहंकार। इन सबका सम्मिलित रूप ही अन्तःकरण है। ___ नीतिशास्त्र का दृष्टिकोण भी लगभग ऐसा ही है। वह संकल्प, इच्छा बुद्धि, संवेग, आवेग आदि का अधिष्ठान आत्मा को स्वीकार करता है। इन सब पर आत्मा की एक विशिष्ट शक्ति शासन करती है, उसका नाम है विवेक (Reason)। मानव का विवेक ही नैतिक निर्णय का कार्यकर्ता है।
जैनदर्शन के अनुसार 'विवेग धम्ममाहिए-विवेक ही धर्म का निर्णायक है। इसे ही अन्तःप्रज्ञा, ‘पन्ना' कहा गया है, इसे ही 'अप्पा-आया-आत्मा' कहा गया है।
नैतिक निर्णय के विवेक की अवधारणा जैन-दर्शन को भी स्वीकार्य है। उसके अनुसार भी निर्णय विवेक के आधार पर ही होना चाहिए। और विवेकपूर्ण निर्णय वही है जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, वासना, स्वार्थ आदि आवेगों की गन्ध भी न हो, सामाजिक रूढ़ियों के परिपालन के लिए न्याय का गला न घोंटा जाय, व्यक्ति को दुखी न किया जाय और उसे पतन के लिए विवश न किया जाय।
1. उद्धृत, डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 66