SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप में पाँच व्रत निर्धारित किए गए हैं। फिर वे महाव्रत तथा अणुव्रत के रूप में दो विधाओं में विभक्त हैं। जहाँ व्रत-पालन में जरा भी अपवाद स्वीकृत नहीं होता, वे महाव्रत के रूप में अभिहित हैं और जहाँ व्यक्ति अपनी क्षमता या शक्ति को संजोते हुए कुछ अपवाद स्वीकार कर व्रतों का पालन करता है, उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। महाव्रत की महत्ता इसमें है कि अपवाद अग्राह्य होने के कारण वहाँ संयम का परिपालन सार्वत्रिक है, समग्रतया है। वैसा करने में बड़ा आत्म-सामर्थ्य चाहिए, जिसे जुटा पाना बहुत थोड़े से व्यक्तियों के लिए संभव है। वैसे व्यक्ति वास्तव में महान होते दूसरी विधा अणुव्रतों की है। वे अणु या छोटे इसलिए कहे जाते हैं कि वहाँ साधक अपनी क्षमता की तरतमता के कारण अहिंसा, सत्य आदि के परिपालन में सीमा करता है। जैन नीति का द्वितीय मूल आधार व्रत-परम्परा है। नीति के खरेपन या खोटेपन का मानदण्ड इन्हीं व्रतों के आदर्शों पर टिका है। जैन परम्परा की यह अपनी विशेषता रही है कि नीति-निर्धारण में व्रतों के आदर्श अपने मौलिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए कुछ परिष्कृत, परिवर्तित, नवीकृत तो हो सकते हैं किन्तु सिद्धान्तों की मूल आत्मा वहां मरती नहीं। भविष्य में होने वाले बहुत बड़े हित की आशा में वर्तमान में सिद्धान्तों के मूल को व्याहत नहीं किया जा सकता। अध्यात्म को लोकजनीन तो बनाया जा सकता है, किन्तु उसे अध्यात्म की सीमा से पृथक नहीं किया जा सकता। इसका फल जहां एक ओर अतिलोकजनीनता प्राप्त न कर सकने में आता है, वहाँ दूसरी ओर अहिंसा, सत्य आदि शाश्वत तत्त्वों से पृथक होकर कार्यशील होने में अवरोध उत्पन्न करता है, जो जीवन की पवित्रता को सुप्रतिष्ठ बनाए रखने का एक सशक्त माध्यम सिद्ध होता है। इस परम्परा ने जैन मानस को सत्य के अधिकतम निकट बने रहने में प्रेरित किया। ऐसी स्थितियों में, जहां वैभव के प्रलोभन में मानव सत् सिद्धान्तों से विचलित हो जाता है, जैनत्व में आस्थाशील व्यक्ति वैसे नहीं हुए, उनमें सत्य के प्रति अविचल दृढ़ता का भाव पनपा, जिसने उनके व्यक्तित्व में ऐसी प्रामाणिकता का संचार किया, जो ऐहिक आकर्षणों के झंझावातों से कभी प्रकम्पित, चलित नहीं हुई। मध्यकालीन भारतीय राजनीति में जब देश विभिन्न क्षत्रिय नरेशों द्वारा शासित था, जैनों का उनके यहां शासनतन्त्र तथा व्यवस्थातन्त्र में बड़ा
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy