SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय प्रारंभ से इस पावन ग्रंथ की परिकल्पना, संकलन संशोधन व सम्पादन कार्य में हुवा मेरा नीजी अनुभव आदि का सविस्तार वर्णन इसके प्रथम प्रकाशन में व इस द्वितीय प्रकाशन के प्रथम व द्वितीय खण्ड में भी दिया गया है, जिन्हें पाठकगण कृपया अवश्य पढ़े ताकि पूरी जानकारी होकर आप में भी प्रभु भक्ति की तंरग अवश्य पैदा होगी । मैं तो पाठकों से यही कहूँगा कि इस प्रकाशन में दैविक शक्ति का प्रारंभ से हाथ है, अन्यथा यह असंभवसा कहा जानेवाला कार्य न पूर्व में हो पाता व न पुनः अभी भी । लोद्रवा पार्श्वनाथ तीर्थ पर दिनांक 1-4-1975 को अधिष्टायक देव द्वारा प्रत्यक्ष प्रकट होकर प्रदानित आशिरवाद के अतिरिक्त हमारे उसी भ्रमण में जगह-जगह आचार्य,मुनि भगवन्तों आदि के भी प्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त हुवे थे । पूरे नाम भी याद नहीं । परन्तु कहीं-कहीं हुई वार्तालय व अंतः करण से प्रदानित आशीर्वाद आज भी याद है । जैसे कुंभोजगिरि के निकट बाहुबली में आ. भ. श्री समन्तभद्रसागरजी, बम्बई में आ. भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी,आ. भ. श्री धर्मसूरीश्वरजी, अहमदाबाद में आ. भ. श्री नन्दनसूरीश्वरजी, पिन्डवाडा में श्री भद्रंकर विजयजी, जालोर में श्री कल्याणविजयजी,जयपुर के निकट आ. भ. श्री तुलसीजी, हस्तीनापुर में साध्वीजी श्री मृगावती म.सा., दिल्ली में प्रवर्तनी साध्वीजी श्री विचक्षणश्रीजी म.सा., राजगिरि में श्री अमरमुनिजी आदि । श्री जिनेश्वरदेव अधिष्टायक देव-देवियों एवं सभी गुरु भगवंतो के आशीर्वाद ही इसकी सफलता का मूल कारण है । मैं तो बारबार आपसे यही कहूँगा कि इस पावन ग्रंथ को पढ़ने, अवलोकन करने या दर्शन करने आदि में ज्यादा से ज्यादा उपयोग मे लें व दूसरों को भी यही प्रेरणा दें । जिससे तीर्थों के प्रति श्रद्धा व प्रभु के प्रति भक्ति बढ़ेगी जो पुण्यफल प्रदायक रहेगी । इस प्रकाशन में अध्यात्मयोगी प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. ने भी पाठकों व दर्शकों के हितार्थ इस पावन ग्रंथ की उपयोगिता व उससे प्राप्त होनेवाले फल की अति ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की है । जिसका इस ग्रंथ के तीनों खण्डों में समावेश है । पाठकगण उसे अवश्य ध्यानपूर्वक पढ़ें । इस पावन ग्रंथ के किसी भी अंश का किसी भी प्रकार दुरुपयोग न हो उसीको ध्यान में रखकर इसकी कापी राइट रिजर्व करवाकर रजिस्टर करवाई है । पाठकों से यह मैं अवश्य कहना चाहता हूँ कि कम से कम ग्रंथों में छपे प्रभु के फोटुओं की किसी भी प्रकार किसी भी कारण बिना हमारी लिखित अनुमति के कापी न करें व न किसी को करने दें । प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमा के फोटु भी प्रभु के स्वरूप है उनमें परमाणुओं की उर्जा अवश्य रहती है । आवश्यकता होने पर सम्पर्क करें, उनपर अवश्य गौर किया जायेगा । आजकल प्रायः देखा जाता है कि प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमाओं के फोटु भी केलेन्डर, पोस्टर, पेम्पलेट, पत्रिकाओं आदि में जगह-जगह यहाँ-तहाँ छापे जाते हैं । जरा हम सब मिलकर इसके अंत परिणाम व होनेवाली अंत स्थिती था विसर्जन पर थोड़ा शांतीपूर्वक सोचें तो हमें खुदकों सही स्थिती महसूस होगी । अतः मैं तो पाठकों व दर्शकों से यही निवेदन करता हूँ कि कृपया प्रभु के फोटु ऐसी जगह ही छपावें जो दर्शन या स्वाध्याय आदि हेतु काम में आते हो या संभालकर सही जगह रखने या रहने की संभावना हो अन्यथा उसे रोकें व दूसरों को भी यही प्रेरणा दें । ऐसे महान कार्य अनेकों के सहयोग से ही सफलता पूर्वक पूर्ण होते है अतः प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप में सहयोग प्रदान करने वाले सभी महानुभावों व शुभ चिन्तकों का मैं आभारी हूँ व हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। ____अंत में पुनः सभी तीर्थाधिराज भगवंतो, जिनेश्वरदेव, अधिष्टायक देव-देविओं, आचार्य, मुनिभगवंतों को आभार प्रदर्शित करते हुवे प्रार्थना करता हूँ कि आपका आशीर्वाद निरन्तर बना रहे व ऐसे पावन कार्य करने की हमें क्षमता प्रदान करें इसी आत्मिक कामना के साथ..... सम्पादक व संस्थापक मानन्द मंत्री चेन्नई, मार्च 2002 यू, पन्नालाल वैद 483
SR No.002332
Book TitleTirth Darshan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy