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श्री चन्द्रप्रभाष पाटण तीर्थ
तीर्थाधिराज
श्री चन्द्रप्रभ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 115 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर ) । समुद्र किनारे बसे प्रभाष पाटण । सोमनाथ मन्दिर से सिर्फ लगभग
तीर्थ स्थल
गाँव के मध्य 400 मीटर ।
प्राचीनता इस तीर्थ की स्थापना श्री आदिनाथ प्रभु के पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती द्वारा हुई मानी जाती है। कहा जाता है जब भरत चक्रवर्ती ने श्री आदीश्वर प्रभु के उपदेश से अभिभूत होकर श्री सिद्धाचलजी का उद्धार करवाकर संघ निकाला, तब प्रयाण के समय यहाँ पर स्थित ब्राह्मी नदी (सरस्वती) के किनारे ठहरे थे । साथ में रहे श्री बाहुबलजी के पुत्र श्री सोमयशकुमार ने यहाँ
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जंगल में अनेक मुनियों को घोर तपस्या करते हुए देखा व वार्तालाप होने पर मुनिवरों ने कहा कि हम वेताढ्य गिरि के विद्याधर हैं । हम श्री धरणेन्द्र देव से इस पवित्र व सर्व रोगों का निवारण करने वाली सरस्वती नदी के पास इस चन्द्रोद्यान का महत्व सुनकर आत्म क्षेमार्थ तपस्या कर रहे हैं । यहाँ पर आठवें भावी तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान का समवसरण रचा जायेगा । यह वृत्तांत सोमयशकुमार ने संघपति श्री भरत - चक्रवर्ती को सुनाया । यह सुनकर भरत चक्रवर्ती ने यहाँ नगर बसाकर चन्द्रप्रभ भगवान के मन्दिर का निर्माण करवाया था । बाद में श्री सगर चक्रवर्ती, चन्द्रयशा, चक्रधर, राजा दशरथ, पाण्डव व हस्तिसेनराजा आदि यहाँ यात्रार्थ पधारे थे ऐसा उल्लेख है । लगभग वि. सं. 370 में श्री धनेश्वरसूरिजी द्वारा रचित श्री "शत्रुंजय महात्म्य" में इस तीर्थ का उल्लेख है । यह
श्री चन्द्रप्रभ भगवान मन्दिर- प्रभाषपाटण
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