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चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य
आरोग्य प्रदान करेगी। आत्मा निरोग हो जाए तो मन स्वस्थ होगा ही और मन स्वस्थ हो तो शरीर की शक्ति कैसे दुर्बल या रूग्ण हो सकती है?
जब आत्मा निरोग बन जाए तो वह जागृत होगी, उठेगी और कर्म-पथ पर प्रयाण अवश्य करेगी। अभिप्राय यह है कि आरोग्य से पुरुषार्थ का जागरण अवश्यंभावी है। ध्यान और कर्म दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यानपूर्वक कर्म को सम्पन्न करना-सफल बनाना ही ध्यान की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता है तथा कर्म की भी सुघड़ता है। यह विचार त्याग दें कि ध्यान साधना संन्यासी ही कर सकता है और वह भी किसी गुफा में बैठकर। ध्यान की यह धारणा ऊँची हो सकती है, किन्तु सर्वग्राही नहीं। ध्यान जीवन के पल-पल में घुला मिला रहना चाहिए। प्रत्येक विचार ध्यानपूर्वक करें, प्रत्येक वचन ध्यानपूर्वक बोलें और प्रत्येक व्यवहार तो अत्यधिक ध्यानपूर्वक ही होना चाहिए। आप ध्यान लगावें कि अपनी दिनचर्या में आप ध्यान शब्द का कितनी बार प्रयोग करते हैं। कोई अपने से दूर जाता हो तो इतना ही कहकर संतोष कर लेते हैं कि ध्यान से जाना। ध्यान का सामान्य जीवन पर भी कितना प्रभाव है-यह ध्यान देने की बात है। ____ ध्यान की साधना को कुछ ऊपर की श्रेणी में रखें, किन्तु ध्यान का प्रयोग एवं उपयोग तो नीची से नीची श्रेणी से ही शुरू हो जाता है। ध्यान उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए है जो अपने प्रत्येक कार्य को निराबाध रूप से सम्पन्न करना चाहता है। कर्म मनुष्य की अनिवार्य प्रवृत्ति है। श्री कृष्ण ने गीता में मनुष्य को कर्मयोग की प्रेरणा दी है, किन्तु गीता की रचना से बहुत पहले ही भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थावस्था में मनुष्य को 'असि, मसि, कसि' के कर्म की प्रेरणा ही नहीं दी, उसके प्रमादी हाथों में कर्म का शस्त्र धारण कराया था। कर्म क्या है? कार्य, प्रवृत्ति और पुरुषार्थ । पुरुषार्थ कर्म का उत्कृष्ट रूप है। कर्म से ही कर्मठता की अवस्था आती है और कर्म ही पुरुष को कर्मयोगी बनाता है। पुरुष का कर्म पौरुष बनता है, पुरुषार्थ कहलाता है और यही पुरुषार्थ जब आत्मा से जुड़ जाता है तो पराक्रम का रूप ले लेता है। पुरुषार्थी तथा पराक्रमी आत्मा ही अन्ततः परमात्म-स्वरूप का वरण करती है। ___ ध्यान करने और ध्यान में जीने का अर्थ नहीं है कि आप गृहस्थ धर्म का पालन नहीं करेंगे, संघसमाज में अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करेंगे याकि व्यवसाय, व्यापार या उत्पादन कार्य नहीं करेंगे। सब कुछ करेंगे ध्यानपूर्वक, मन को साक्षी बनाकर तथा आत्मा की आवाज सुनते हुए। आप बेध्यान नहीं हैं, सावधान नहीं हैं, लापरवाह नहीं है-यही ध्यान है। आप शरीर और इंद्रियों के दास नहीं हैं, मन के चाकर नहीं हैं, अपनी इच्छाओं के अनुगामी नहीं है-यही आत्म-पुरुषार्थ है और जहाँ आत्म पुरुषार्थ है, वहाँ ध्यान साधना है ही।
संसार के आवश्यक सारे काम करें मगर ध्यान के साथ। ध्यानी और अध्यानी के काम में बड़ा फर्क रहता है। दोनों की कार्यशैली और परिणाम में भारी अंतर दिखाई देगा। ध्यानी यदि उन लोगों के जीवन मूल्यों का ध्यान रखेगा जो उसकी उत्पादकता का उपयोग करेंगे या उसके व्यवहार का सामना करेंगे। वह इस ध्यान से अपना कार्य करेगा कि जिसके कारण सबकी प्रतिक्रिया अनुकूल हो। दूसरी ओर जो अध्यानी है वह अपने काम को जैसे-तैसे करेगा, जिसमें न तो उसमें होने वाली हिंसा का ध्यान रहेगा और न ही उन लोगों की प्रतिक्रिया का, जिनके लिए काम किया जा रहा है। यह अन्तर आसमान
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