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चरित्रबल से ही घूमेगा शभंकर परिवर्तन का चक्र
सद्गुणों को अपनावें तथा मानवीय कर्तव्यों का पालन करें तो समझें कि हो गया चरित्र निर्माण।
अभियान के सहभागियों के लिए चरित्र निर्माण विचार व आचार संहिता हो सकती है:
यहां चरित्र निर्माण से संबंधित विचार व आचार के कुछ बिन्दु इस उद्देश्य से दिए जा रहे हैं जो अभियान के सहभागियों को सतत् सावधान रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं। दूसरे नाम से इन बिन्दुओं को विचार व आचार की संहिता कह दें तो अनुपयुक्त नहीं होगा। ये बिन्दु इस प्रकार हैं____1. मनुष्यता को केन्द्र में स्थापित करो : इस बुनियादी हकीकत को हर वक्त याद रखना होगा कि जो भी सोचा जाता है, किया जाता है या योजना-प्रायोजना बनाई जाती है वह सब मानव समाज के लिए होती है। फिर भी विचार विमर्श में मानवीय चेहरा भुला दिया जाता है जैसे कि आज के विकास की कोरी भौतिक धारणा है-यह एकदम गलत है। प्रत्येक विचार, धारणा, कार्यक्रम या अभियान में सदा मनुष्यता को केन्द्र में स्थापित करके ही निर्णय लो। मनुष्य विश्व का केन्द्र है, बुद्धि, भावना एवं पौरुष का धनी है तथा आत्मा व परमात्मा का सच्चा प्रतिनिधि है। मनुष्य तो केन्द्र में रहता है किन्तु मनुष्यता नहीं और उसी कारण सारा शोषण, दमन, उत्पीड़न होता है। अतः मनुष्यता सदा केन्द्र में रहे
और उसके इर्द-गिर्द ही रचनात्मकता का संसार घूमे। ___2. प्रकृति के साथ समन्वय करो : प्रकृति और पुरुष का सहयोग समाज में सुख-शांति बनाता है। पुरुष ने सबसे पहले प्रकृति को माता माना, उसकी साल सम्भाल की तो पुरुष भी समृद्धिशाली बना तथा स्वस्थ बना रहा। फिर उसका अहं जागा और वह प्रकृति पर विजय पाने का प्रयास करने लगा। तब वह प्रकृति को छिन्न-भिन्न व क्षत-विक्षत करने लगा। घने जंगल लोभवश काटे जाने लगे। औद्योगिक धुएं ने धरती की ओजोन परत को ही हानि पहुंचानी शुरू कर दी। प्रकृति को भोग्या अभिमानी और लोभी पुरुष ने। पर्यावरण प्रदूषित हुआ और हो रहा है-प्राकृतिक सुव्यवस्था टूट रही है। अतः प्रकृति की रक्षा और सेवा, पहला कर्त्तव्य माना जाना चाहिए ताकि मनुष्य के ही जीवन का नहीं, स्थूल-सूक्ष्म सभी जीवों का भी संरक्षण हो सके।
3. संसार को बदलने से पहले स्वयं को बदलो : सभी धर्म, सभी नीतियाँ, सभी विचारधाराएं आज दुःख तप्त संसार को बदलने की बात कहती हैं किन्तु वह बात तभी सार्थक हो सकती है जब पहले व्यक्ति ही स्वयं को बदल डाले-चरित्र निर्माण तथा विकास के माध्यम से अपने को इस योग्य बना ले कि वह संसार की अशुभता को दूर करने का बीड़ा उठा सके।
4.संसार से प्रेम करो, सांसारिकता की उपेक्षा : संसार और सांसारिकता के भेद को समझना चाहिए। संसार तो वह पुण्य क्षेत्र है जहां भव्य और दिव्य महापुरुषों ने जन्म लिया तथा अपने आदर्शों का उदाहरण प्रस्तुत करके सबको उसी राह पर चलने की प्रेरणा दी। ऐसी पुण्य भूमि से घृणा या उपेक्षा भी कैसे की जा सकती है? इस भूमि से तो प्रेम होना चाहिए और इसके निवासी प्रत्येक प्राणी, भूत, सत्त्व और जीव के साथ अनुराग। जो उपेक्षा की वृत्ति है अथवा त्याज्य है वह है सांसारिकता अर्थात् राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दुर्गुणों से भरी हुई जीवन पद्धति। सांसारिकता से
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