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सुचरित्रम्
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गुरु-'अनुशासन।' क्योंकि अनुशासन, संयम और नियम में जीना सिखलाता है जबकि
संगठन व्यक्तियों का समूह मात्र होता है। 39.शिष्य-'दान बड़ा या ज्ञान?'
गुरु-'ज्ञान।' क्योंकि ज्ञानवान अनेक व्यक्तियों को ज्ञानवान बना सकता है और श्रेष्ठ ज्ञान भी वही है जो 'पर' में भी 'स्व' को देखता है जबकि दान में 'स्व' और 'पर' के बीच एक भेद
की दीवार खड़ी रहती है। 40. शिष्य-'आसक्ति चाहूँ या समर्पण?'
गुरु-'समर्पण।' क्योंकि सत्य के प्रति आकर्षण ही समर्पण को जन्म देता है जबकि आसक्ति असत्य के आकर्षण का प्रतिफल होती है। आसक्ति अंधकार है तो समर्पण प्रकाश है।
आसक्ति स्वार्थ से सनी होती है तो समर्पण नि:स्वार्थ से पावन होता है। 41. शिष्य-'दरिद्रता चाहूँ या संयम?'
गुरु-संयम।' क्योंकि धनाढ्यता में यदि संयम है तो वह पतन के गर्त से बचा सकता है और दरिद्रता में संयम है तो वह दरिद्रता के दुःख से भी उबर सकता है जबकि संयम के अभाव
में दरिद्रता एवं धनादयता (अदरिद्रता) दोनों ही अभिशाप है। 42. शिष्य- भक्ति चाहूँ या शक्ति?'
गुरु-भक्ति।' क्योंकि भक्ति शक्ति का अजस्र स्रोत होती है। बिना भक्ति की शक्ति विनाश
का खुला प्लेटफार्म होती है। भक्ति से नियंत्रित शक्ति से ही विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। 43. शिष्य-'लघुता चाहूँ या प्रभुता?'
गुरु-लघुता।' क्योंकि प्रभुता तो लघुता में ही बसी है। जिसका अहं गल जाता है, वही 'अर्हम्' बनता है। जबकि अपने आपको प्रभु मानने वाला प्रभु नहीं, पशु-सम जीवन जीता
44. शिष्य-'इज्जत चाहूँ या दौलत?'.. . गुरु-'इज्जत।' जिसकी इज्जत होती है उसके पास सबसे बड़ी वही दौलत है और बिना
इज्जत के दौलत किस काम की? 45. शिष्य-'बदलता क्या है-रूप या स्वभाव?' • गुरु-स्वभाव।' क्योंकि रूप रंग जन्मजात होते हैं जो बदले नहीं जा सकते जबकि स्वभाव संसर्ग एवं संस्कारों का सहजात होता है, उसे बदलना व्यक्ति के हाथों में है। वह जैसा चाहे,
अपने स्वभाव का निर्माण कर सकता है। 46. शिष्य-पराक्रमशील होऊँ अथवा गतिशील होऊँ?'
गुरु-'पराक्रमशील।' क्योंकि पराक्रम जीव का स्वभाव है, वह जब तक नहीं जागता है तब
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