SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोषण और उत्पीड़न मिटे बिना प्रेम कहां? प्रेम बिना समता कैसी? अवश्य चाहिए ताकि वे संतोष एवं सुरक्षा के साथ अपना कर्त्तव्य पालन कर सके। शास्त्र का यह मत भी है कि निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छाआसक्ति है तो परिग्रह है और वह नहीं है तो अपरिग्रह (गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा, मुच्छाहि निच्छयओ-विशेषावश्यक सूत्र-भाष्य 2573)। अतः आसक्ति मनुष्यों के मन से छूटे-ऐसे बाहरी उपाय भी अवश्य किए जाने चाहिए। भीतरी उपाय शुद्ध दृष्टि से भावात्मक है जिसकी साधना व्यक्ति को ही करनी होगी, किन्तु इस साधना में बाहरी उपाय भी सहायक हो सकते हैं। समझें कि राज्य या समाज की ओर से ऐसे विधान व नियम जारी किए जाए जिनके कारण व्यक्ति के हाथों में आवश्यकता से अधिक परिग्रह का संचय न हो सके। जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं का देश, काल के अनुसार एक मानदंड कायम किया जा सकता है और उसके अनुसार धन-धान्य या सम्पत्ति रखने की छूट दी जा सकती है। उस छूट से ज्यादा परिग्रह कोई नहीं रख सके तो उसके दो लाभ होंगे एक तो यह कि निर्वाह योग्य सभी आवश्यक वस्तुओं का सबके बीच संविभाग हो सकेगा तथा दूसरा यह कि जब परिग्रह संचय का अवकाश ही नहीं रहेगा तो क्यों कोई अपने व्यापार, व्यवसाय या सेवा में किसी भी प्रकार से अनीति का आचरण करेगा? व्यक्ति की ओर से भावात्मक तैयारी, समाज-राज की ओर से परिग्रह संचय पर अंकुश और फलस्वरूप अपरिग्रह एवं अनासक्ति का पुष्टिकरण । यही स्तर होगा जब समाज, राष्ट्र व विश्व में समता की स्थापना हो सके, उसका निरन्तर विस्तार होता रहे तथा समतामय व्यवस्था में स्थायित्व भी आवे। ___ अपरिग्रह का अर्थ है जागरण, जागरण भीतर में भी और बाहर में भी। तभी तो समता भीतर में भी प्रतिष्ठित होगी और बाहर में भी नई रचना की सृष्टि करेगी। अपरिग्रह अपनाने से सभी द्वन्द्वों का विसर्जन हो जाएगा एवं शान्ति तथा सुख की अनुभूति होगी। यह सबके स्पष्ट अनुभव में आता है कि परिग्रह प्राप्ति तथा संचय की अन्धी दौड़ के कारण ही मानसिक, पारिवारिक, समाजिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं उत्पन्न होती हैं और लाख कोशिशों के बाद भी वे सुलझाई नहीं जा सकती है। परिग्रह संचय पर अंकुश से एक ही झटके में सारी समस्याएं सुलझ जाएगी। हिंसा, भय, घृणा के त्याग के साथ समता हेतु वांछित गुणों का वरण : आज विश्व में नीचे से ऊपर तक के सभी स्तरों पर फैले वातावरण की जांच-परख करे तो ज्ञात होगा कि भय, आतंक या दहशत जैसे हवा में ही घुल गई है। सबको सांस लेना पड़ता है और सबको भयभीत भी रहना पड़ता है। यही भय आज घृणा और हिंसा से लिपट कर विनाशक रूप धारण कर चुका है। मजहबी कट्टरवादिता ने हजारों निर्दोष नागरिकों का खून बहाते हुए इस भय को आतंक में बदल दिया है कि हर पल व्यक्ति दहशत से थर्राता रहता है-न जाने कब किस दिशा से आतंकवादियों की एक साथ बरसती हुई गोलियां उनके शरीर को छलनी बना दे? इस वातावरण में समता की बात करना भी जैसे आशंकित बना देता है कि कोई भला उसे सुनेगा भी। किन्तु यह याद रखें कि अंधेरा जितना गहरा होता है, उसमें एक तीली के जलने से उत्पन्न क्षीण प्रकाश भी रास्ता दिखा सकता हैराहत दे सकता है। उसी प्रकार हिंसा की सघन उपस्थिति में ही अहिंसा की बात की जानी चाहिए, विषमता के विषैले वर्गों के बीच ही समता की बात की जानी चाहिए तथा अशान्त लोगों के बीच ही 465
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy