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सुचरित्रम्
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स्वामी स्वयं घर में है और वह पूरे होश में है। उस शहर पर कोई हमला नहीं कर सकता और न ही कोई दूसरा उसका नाथ बन सकता 1
इस प्रकार हमारे जीवन में धर्म का स्रोत प्रतिक्षण और पद-पद पर बहता रहना चाहिए, जिससे कि आनन्द, उल्लास और मस्ती का वातावरण बना रहे। जीवन में धर्म का सामंजस्य होने के बाद साधक को अन्यत्र कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं । मुक्ति के लिए भी कहीं दूर जाना नहीं है, अपितु अन्दर की परतों को भेद कर अन्दर में ही उसे पाना है ( चिन्तन की मनोभूमि द्वारा उपाध्याय श्री अमर मुनि जी, पृष्ठ 275-277)।
नाथी मुनि की चरित्र सम्पन्नता अद्वितीय थी, क्योंकि वह सच्चे धर्म पर आधारित थी। सच्चे धर्म में विज्ञान और विकास समाविष्ट थे। उस समय धर्म का जो विवेचन होता था, वह वैज्ञानिक होता था उसमें मिथ्या या अविश्वसनीय तत्त्व कदापि सम्मिलित नहीं होता था । आज भी चरित्र सम्पन्नता प्राप्त करने की प्रक्रिया बदली नहीं है, उसे पूर्णता एवं परिपक्वता के लिए धर्म, विज्ञान व विकास के त्रिकोण से ही गुजरना होगा।
चरित्र निर्माण से चरित्र सम्पन्नता तक की सतत यात्रा :
चरित्र निर्माण से चरित्र सम्पन्नता की सतत यात्रा को महायात्रा का नाम दिया जा सकता है, क्योंकि इसका फल विलक्षण होता है । चरित्र सम्पन्नता की अवस्था में समाज और संसार में ऐसी चमत्कारी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब सब ही स्वामित्व के धनी होंगे और दासत्व कहीं पर दिखाई नहीं देगा। इसका अर्थ यह है कि सभी अनाथी मुनि की संयम सफलता के अनुरूप स्वयं के स्वामी या नाथ बन जाएंगे, परन्तु ऐसा होने पर भी दास या अनाथ कहीं भी कोई नहीं रहेगा। इस फल को विलक्षण ही मानना होगा )
व्यक्ति से लेकर विश्व तक के स्तर पर मानवीय मानदण्डों से परिपूर्ण व्यवस्था को स्थापना हेतु मूल रूप में चरित्र की अपेक्षा रहती है तो विकास के अग्रिम चरणों में भी चरित्र के उन्नत स्वरूप का विस्तार अनिवार्य कहा जाएगा। चरित्र मूल में भी चाहिए तो शिखर तक भी चाहिए। चारित्रिक गुणों की उपलब्धि जितने परिमाण और घनत्व में होती जाएगी, तदनुसार व्यक्ति विकास के साथ विश्व
सर्व आयामी विकास भी सफल होता जाएगा। चरित्र निर्माण से लेकर चरित्र सम्पन्नता तक की यात्रा अपनी सफलता के साथ मानव जीवन की उत्कृष्टता की परिचायिका होती है।
मनुष्य परिवार तथा समाज के बीच में रहता है और इस कारण इन क्षेत्रों की जिम्मेदारियों को निबाहने से वह अपना मुंह नहीं मोड़ सकता है। आप यदि सोचे कि परिवार के लिए कितना पाप करना पड़ता है, यह बन्धन है, भागो इससे, इसे छोड़ो-तो क्या काम चल सकता है और छोड़ कर भाग भी चलो तो कहां? वनों और जंगलों में भागने वाला क्या निष्कर्म रह सकता है? गंगा में समाधि लेकर क्या पाप और बन्धन से मुक्त हुआ जा सकता है? सोचिए, ऐसा कौनसा स्थान है, कौनसा साधन है, जहां आप निष्कर्म रह कर जी सकते हैं? वस्तुतः निष्कर्म अर्थात् क्रियाशून्यता जीवन का समाधान नहीं है। भगवान् महावीर ने इस प्रश्न पर समाधान दिया है - निष्कर्म रहना जीवन का धैर्य