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सुचरित्रम्
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पैसे के नहीं होता-गृहस्थ को अपनी गाड़ी चलाने के लिए पग-पग पर धन की जरूरत होती है। किन्तु यही अर्थ तब अनर्थ का रूप ले लेता है जब इसका अर्थशास्त्र बिगड़ता है यानी कि मनुष्य ही तृष्णा और लालच में अंधा बन कर अर्थ के उत्पादन को केन्द्रित बनाता है, अर्थ का विषम वितरण करता है तथा अर्थ में निहित स्वार्थों के घेरे बना कर पूरी अर्थशक्ति को कुछ ही हाथों में संग्रहित करने की चेष्टा करता है। यही अनर्थ बना अर्थ समाज के सभी क्षेत्रों-आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि में विषमताओं के विषैले कीटाणु फैलाता है और समूची व्यवस्था को अमानवीय रूप दे देता . है। फलस्वरूप समाज की सत्ता और सम्पत्ति का नियंत्रण कुछ लोग अपने हाथों में ले लेते हैं और शेष विशाल जन समुदाय दीनहीन अवस्था में शोषण, दमन तथा उत्पीड़न के लिए असहाय छोड़ दिया जाता है। यों अर्थ का अनर्थ अर्थात् विषैली विषमताएं और मानवीय मूल्यों का ह्रास। इस अनर्थ को दूर करने का यह उपयुक्त समय है, जब राष्ट्रों की सीमाएं मिटा कर एक विश्व बनाने की तैयारी चल रही हो। . सभी प्रकार की सामाजिक विषमताओं की जननी है आर्थिक विषमता, क्योंकि अर्थ की सबको आवश्यकता होती है और इस रूप में वह प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित करता है। अर्थ की विषमता जब गहरी हो जाती है, तब विद्रोह होते हैं, क्रांतियां होती हैं और कभी-कभी भीषण रक्तपात भी होता है कि किसी प्रकार से समाज में अर्थ की समानता आवे या कम से कम सबको सुविधा तो मिले ही। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में साम्यवाद को असली जामा पहिनाने के रूप में एक प्रयोग हुआ और आर्थिक समानता की व्यवस्था आधी दुनिया में कायम भी हुई किन्तु मूल में दोष के कारण वह साम्यवादी व्यवस्था स्थिर और स्थाई नहीं हो पाई और उसी शताब्दी के उत्तरार्ध में वह व्यवस्था टूट गई। मूल का दोष यह था कि वह व्यवस्था बलात् लागू की गई और बलात् ही चलाई गई। इसका कुपरिणाम यह रहा कि साम्यता के विचार को शोषितों ने समझा नहीं और मसीहा बन कर आये नेता खुद ही शोषक बन गए। इस प्रयोग से शिक्षा लेने की बात यह है कि सारा काम . 'इच्छात्' लोगों की सहमति से होना चाहिए।
विश्व में आज आर्थिक विषमता अति भयंकर रूप में फैली हुई है। कुछ विकसित देश ही अपनी उन्नत तकनीकों के कारण दुनिया के सभी भागों में ताकत से व्यापार करते हैं और भारी मुनाफे लूटते हैं-साथ में सर्वत्र अपनी राजनैतिक ताकत भी बढ़ाते रहते हैं। परिणामस्वरूप अनेक देश आर्थिक रूप से पूरी तरह पिछड़े हुए हैं तो कुछ विकासशील देश अपने आर्थिक विकास के प्रयास अवश्य कर रहे हैं किन्तु उनकी सफलता का ग्राफ बहुत धीमा है। दुनिया की दो तिहाई आबादी गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी आदि में पशुओं-सा जीवन बिताने को अभिशप्त है। यह अतीव दयनीय दशा है। शोषण और दमन का सिलसिला जब तक बन्द नहीं होता यानी कि विषमताओं की चौड़ी खाई पाटी नहीं जाती, तब तक करोड़ों-अरबों लोगों के लिये खुशहाली का कोई रास्ता निकाल पाना दुष्कर है।
नये अर्थशास्त्र की रचना करनी होगी, उसके सिद्धान्तों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करना होगा और पिछड़े मानव समुदायों को तद्हेतु विश्वास में लेना होगा, तभी आर्थिक एवं अन्य प्रकार की
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