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________________ सुचरित्रम् संचय करते हुए सत्य के समीप पहुंचा जाए। बहुस्वरूपी पदार्थ व तत्त्व के ज्ञान की अनेकान्तवाद ही सही विधि होती है। भारतीय दर्शनों में यह अनुपम देन जैन दर्शन की है तथा इस दर्शन में स्वरूप ज्ञान की सही विधि का विस्तृत विवेचन भी दिया गया है जो विधि है नयवाद की विधि। नय पद्धति जैन दर्शन की पूर्णतया मौलिक विचारशैली है। यह एकदेशीय विचारशैली को नकारती है और वास्तु की अनन्त धर्मात्मकता को दृष्टिगत रखकर उसके विविध रूपों को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करती है। जैन दृष्टि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले विचारों में अविरोध का बीज खोजती है और उसमें समन्वय स्थापित करती है। स्वरूप के अनेक पक्षों वाली वस्तु के विषय में अपना एक मत निर्धारित करना तय है, किन्तु वह मत ऐसा हो जो अन्य विभिन्न मतों की उपेक्षा या अवहेलना न करता हो। यह मत आंशिक मत होगा। एक मत को ग्रहण करना तथा अन्य मतों के प्रति उदासीनता, यह सुनय का लक्षण है और अन्य मतों का तिरस्कार करना दुर्नय है। प्रत्येक नय की अपनी-अपनी सीमा है जिसका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए स्वरूप के एक गुण 'सत्' को लें। नय 'सत्' को 'स्यात्' कह कर ग्रहण करता है-स्यात् का अर्थ है-हो सकता है (मे बी) अर्थात् वहां 'ही' (यही है) का प्रयोग न होकर 'भी' (हो सकता है) का प्रयोग होता है। 'ही' के कथन में एकान्त हठ है तथा अन्य सभी मतों का तिरस्कार है और 'भी' के कथन में अपना मत है किन्तु सभी मतों की स्वीकार्यता भी है जो समन्वय का रास्ता खोलती है। इसे दर्शन की भाषा में सापेक्षता कहते हैं। सापेक्षता का अर्थ है सबकी अपेक्षा-सबके सत्यांशों की ग्रहण वृत्ति। यह 'स्यात्' नयवाद का प्राण है। इसे न तो स्वपक्ष आग्रह स्वीकार है और न ही पर-पक्ष निषेध। इसे सबकी अपेक्षा है। अति संक्षेप में नय के भेदों की चर्चा करें 1. नैगम नय : संकल्प मात्र को ग्रहण करना, जैसे कोई व्यक्ति दरवाजा बनाने के लिए लकड़ी लेने को जंगल की ओर जा रहा है और कोई उसे पूछता है, कहां जा रहे हो? वह उत्तर देता हैदरवाजा लेने के लिए, तो यह उत्तर संकल्प मात्र है किन्तु है तो सच ही। 2. संग्रह नय : वस्तु के द्रव्यत्व आदि सामान्य धर्मों को ग्रहण करने वाला विचार। जैसे स्वामी ने सेवक से कहा-'दातुन लाओ।' इस प्रकार सेवक सिर्फ दातुन ही नहीं लाता बल्कि पाट, बिछौना, जल का लोटा, अंगोछा आदि सब लाता है। एक आदेश से सम्बन्धित सामग्री का ज्ञान कर लेना, इस नय का वस्तु विषय है। 3. व्यवहार नय-संग्रह नय द्वारा संग्रहित अर्थ में विधिपूर्वक, अविसंवादी तथा वस्तु स्थिति मूलक भेद करना अर्थात् विभाग करने वाला विचार । रोगी औषधि विक्रेता से जाकर इतना ही कहे कि औषधि दो तो उससे काम नहीं चलता। उसे औषधि का नाम, आसेवन विधि आदि सब बताना पड़ता है। स्वरूप की सामान्यता से यह नय विशेषता की ओर आगे बढ़ता है-समग्रता में निश्चय की स्थिति लाता है। 4. ऋजुसूत्र नय : वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को मुख्य रूप से ग्रहण करना। कोई कहे कि मैं सुखी हूँ तो वह स्पष्ट करता है कि वर्तमान में सुख की अवस्था है। इस नय में भूत व भविष्य का विचार नहीं होता, केवल वर्तमान पर्याय को ही स्वीकार किया जाता है। 420
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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