________________
सुचरित्रम्
बिना किसी लगाव, बिना प्रेम या घृणा एवं फल की कामना के बिना किया जाता है, कल्याण के मार्ग में आगे बढ़ाने वाला होता है। ___प्रभु महावीर कहते हैं-'सभी जीवों के प्रति दया भाव रखें, क्योंकि घृणा केवल विनाश की ओर ले जाती है।' चरित्र सम्पन्न बनने का पहला अर्थ यह है कि घृणा को जीतें तथा सबके बीच प्रेम, दया
और सहकार की संवदेना जगावें। यह कर्तव्य ही नहीं, दायित्व बनना चाहिए कि जहां भी लोग निराशा के काले बादलों से घिरे हों और जिन्हें प्रकाश की रेखा तक न दिखाई दे रही हो, उन्हें अपने • चारित्रिक क्षमता का सम्बल दिया जाय तथा उनके बीच रह कर उनका भी तदनुरूप चरित्र गढ़ा जाय।
यदि प्रत्येक चरित्रशील व्यक्ति अपने जीवन को दूसरों की सहायता में लगा दे तो वे दूसरे भी संकटकाल में क्या करें-उसका विवेक पा जाएंगे। सब पर प्यार, परवाह और दया दृष्टि रहेगी तो उसकी तरलता में प्यार देने वाले तथा प्यार लेने वाले दीनों के हृदय प्रफुल्लता से भर उठेंगे। श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-वहां ईश्वर कतई नहीं आता, जहां कायरता, घृणा और भय का राज चलता है। उन्नत चरित्र का साध्य यही होता है कि वह दूसरों के उत्थान और विकास के लिए त्याग और बलिदान में अग्रणी रहे तथा समय आने पर सर्वस्व तक न्यौछावर कर देने की तत्परता रखे। चरित्रशील व्यक्ति को सदैव सतर्क रहना चाहिए तथा उदार-हृदय भी कि वह आवश्यकता आने पर देने ही देने का भाव रखे। उसके कार्य के पीछे कभी निहित स्वार्थ न रहे। आत्मा की आवाज आ जाए कि प्रस्तुत समय त्याग का है तो उस समय विश्लेषण, परीक्षण अथवा आलोचना किए बिना देने का क्रम शुरू कर दे। उस दान से उन्हें नया जीवन मिलेगा, जिनके सिर पर संकट के बादल मंडरा रहे थे। वे नया प्रकाश पायेंगे, जिन्हें अंधेरा घेरे हुए था। आपकी शक्ति, साहसिक वृत्ति एवं निर्भयता उन दलितों, शोषितों एवं उत्पीड़ितों का चरण बनेगी। चरित्र विकास देना ही देना जानता है, लेने की लालसा कभी नहीं रखता। जरूरत मंद को उसकी जरूरत के मुताबिक देने की अनेक विधियां हो सकती हैं तो अनेक प्रकार भी-विवेक समय पर सही निर्धारण कर देता है।
वह ज्ञान जो सबको जगाता है, वही विश्व चेतना की एकता का भी ज्ञान होता है, जो चरित्र निर्माण के बाद आन्तरिकता में प्रस्फुटित होता है। सकल मानव जाति की एकता के विचार के साथ आत्मा की शक्ति उभरती है और संसार में शुभ परिवर्तन का शंखनाद करती है। आज का समय नाजुक है और इसमें कटुता व द्वेष को भूल कर दयालुता, स्नेहिलता तथा सज्जनता की वृत्तियों को जगाना एवं कार्यरत बनाना होगा। इसका केन्द्र बिन्द बनाना होगा सर्वत्र शान्ति को और सबसे ऊपर विश्व शान्ति को। यदि किसी की धर्म और कर्म की भावनाएं अब तक क्रियान्वित न हो पाई हों तो वर्तमान समय से अधिक अन्य कोई उपयुक्त समय नहीं होगा कि आज वह अपना सम्पूर्ण सहयोग व्यक्ति से लेकर विश्व तक की समस्याओं के शान्तिपर्ण समाधान में समर्पित करें। स्वयं स्वस्थ रहें
और सबको स्वस्थ रहने की सीख दें-स्वस्थ अर्थात अपने में स्थित यानी आत्मविश्वास से भरपर। यह सतत जागृति का मार्ग है कि अधिक से अधिक व्यक्ति चरित्र-विकास के अभियान में साथसाथ जुटें, स्थान-स्थान पर सहयोगी संगमों की रचना करें तथा परहित में स्व को अर्पित कर दें। जब मानव जाति एक बनेगी, संगठित होगी, तब ईश्वरत्व का सुप्रभाव अपने साध्य के प्रति अधिक
394