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सुदृढ़ संकल्प बिना चमत्कार असभव
किसी दासी को नहीं भेजा, बल्कि खुद ही पागल की तरह उठ कर भागी और उसने तत्काल दरवाजा खोल दिया। यह क्या? उसकी आंखें फटी की फटी रह गई-वह सत्य था या स्वप्न? अपने जिस प्रियतम की प्रतीक्षा करते करते उसकी आंखें पथरा गई थी और उसका मन पूरी तरह निराशा के अंधकार में डूब चुका था, वे ही प्रियतम अब यकायक उसे अपने सामने दिखाई दे तो सहज ही विश्वास कैसे हो सकता है?
कोशा नर्तकी थी-उसके पष्प नत्य की प्रसिद्धि चारों ओर दर-दर तक फैली हई थी। वह रूपवती ऐसी थी कि देखते ही कोई भी मग्ध हो जाए। उसके लिए सन्दर, धनवान और बलिष्ठ प्रेमियों की कमी नहीं थी। किन्तु उसने एक से ही प्रेम किया और वह प्रेमी थे स्थूलिभद्र। उनका रागात्मक बंधन ऐसा था कि जिसके लिए लोग समझते-यह इस जन्म में क्या, जन्म जन्मान्तर तक भी नहीं टूटेगा। कोशा और स्थूलिभद्र प्रेम के पर्याय बन गए थे। बहुत दिनों से न तो स्थूलिभद्र स्वयं आए
और न ही उनका कोई संवाद इस कारण कोशा चिन्तित थी, दुःखी थी-एक-एक पल वर्षों जैसा बीत रहा था। वह उस बिन्दु के निकट पहुंच रही थी जहां से विक्षिप्त दशा शुरू होती है। ऐसी विह्वलता में अचानक अपने प्रियतम के दर्शन हो जाए और वह भी अपने ही द्वार पर तो उससे अधिक आल्हाद
और क्या हो सकता है? वह बावरी-सी मुनि स्थूलिभद्र की आंखों में आंखें डाल कर एकटक देखती रही-हर्षावेग में बोल कुछ भी नहीं पाई।।
बोलना स्थूलिभद्र को ही पड़ा-तुम देख रही हो न, कोशा! वह स्थूलिभद्र अब नहीं रहा-यह नया स्थूलिभद्र है मुनिवेश में और वह यह चातुर्मास तुम्हारे आवास पर सम्पन्न करने के लिए आया है। क्या तुम उसे भीतर आने को नहीं कहोगी? कोशा स्तब्ध थी-उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह नया और पुराना स्थूलिभद्र कैसे है और चातुर्मास उसके आवास पर क्यों? उसने कुछ भी समझना नहीं चाहा। उसके चेहरे पर प्रसन्नता की चमक फैल गई, उसने प्रेमपूर्वक अभ्यर्थना की-मेरे प्रियतम! यह आवास मेरा कहां? जब मैं ही आपकी हूँ तो यह आवास भी आपका ही हुआ न? फिर आज्ञा देने वाली मैं कौन होती हूँ? आप तो इस दासी को आज्ञा दीजिए। मुनि स्थूलिभद्र उस समय कुछ नहीं बोले और भीतर पहुंच कर एक अलग-थलक वाले कक्ष में जाकर खड़े हो गए। उन्होंने मर्यादानसार आज्ञा मांगी और वस्त्र-उपकरण आदि एक ओर रख कर वे ध्यानस्थ हो गए। वह कोशा भी वहां से चली गई और अपने प्रियतम को रिझाने की तैयारियों में जुट गई।
आषाढ़ी पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र अपनी धवल चांदनी बिखेर रहा था और रागियों के लिए जैसे वायुमंडल में मादकता भर रही थी। तब कोशा का राग महाराग बना हुआ था और मुनि स्थूलिभद्र विराग की कसौटी पर चढ़े हुए थे, अपने संकल्प बल पर स्थित थे। स्थूलिभद्र के कक्ष के बाहर ही कोशा ने अपने प्रसिद्ध पुष्प नृत्य का आयोजन किया था। नृत्य वह करेगी और देखेंगे अकेले उसके प्रियतम स्थूलिभद्र। उसने बड़े ही मनोयोग से पुष्प नृत्य शुरू किया-फूलों की ढेरी पर वह लगातार घंटों तक नाचती रही, बिना एक भी फूल को हिलाए। जब वह थक कर निढाल हो गई तो गिर पड़ी
और प्रशंसा के लिए उसने आशाभरी नजरों से स्थूलिभद्र की ओर देखा। वह अपना होश ही खो बैठी कि तब भी स्थूलिभद्र आंखें बन्द किये ध्यानस्थ ही खड़े थे।
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