________________
रहस्यों, संभावनाओं तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों से भरा है यह संसार!
समर्पित कर देता है। चरित्रशीलता की यही स्थाई प्रकृति होती है। रहस्य, जिज्ञासा एवं साधना के साहसिक चरण :
एक सामान्य व्यक्ति अपनी द्रव्येन्द्रियों (बाहिरिन्द्रियों) से संसार के स्थूल पदार्थों को देखताभालता है और अध्ययन, चिन्तन व मनन के आधार पर उनके स्वरूपं की गहराइयों में उतरता है, तब उसके हृदय में एक प्रकार की परख-बुद्धि जागृत होती है-परीक्षा बुद्धि पैदा होती है। जो उसे रहस्यों की कल्पना कराती है और उसकी जिज्ञासा को भी प्रबल बनाती है।
सोचिए कि रहस्य क्या है? उसे ही तो रहस्य कहेंगे, जो अब तक जाना-देखा नहीं गया है, न ही उसके स्वरूप की कोई स्पष्ट धारणा बनी है। अधिकांश में वह कल्पना और अनुमान ही होता है। ऐसे रहस्य को जानने की स्वाभाविक इच्छा का नाम ही जिज्ञासा है। एक दृष्टान्त से इसे समझें... आपको कोई व्यक्ति अपने बहुत बड़े मकान की चाबियाँ सौंपता है यह भलावण देकर कि आप उस मकान के अमुक कमरे को कतई न खोलें। चाबियाँ सौंप कर वह परदेश चला जाता है। आपके मन में तब क्या आता है? आपके लिए वह कमरा एक रहस्य हो गया। उसमें क्या है या क्या नहींइसकी आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं अथवा बाहर के किन्ही लक्षणों के आधार पर कोई अनुमान-इससे अधिक कुछ नहीं। तब आपकी जिज्ञासा-तीव्र इच्छा यह जानने की होती है कि आखिर उस कमरे का रहस्य क्या है? उसी कमरे को खोलना चाहेंगे। अभिप्राय यह कि रहस्य को भेदने की मनुष्य के मन में प्रबल जिज्ञासा जाग जाती है। फिर वह अपने को रोक नहीं पाता और अधिकतम साहस जुटा कर रहस्य-भेदन के कठिन कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। ___ यह तो एक सामान्य मनोदशा है। किन्तु चरित्र बल के धनी पुरुष के सामने जब अपार सागर लहरा रहा हो, तब वह सोचता है कि इसकी अथाह जल राशि में क्या होगा, अनंत आकाश की ओर निहारता है तो सोचता है कि ज्ञात या दृष्ट ब्रह्मांड के आगे भी न जाने इसका कितना विस्तार होगा? उत्तुंग पर्वत शिखरों पर दृष्टि डालता है तो सोचता है कि इनके उस पार क्या-क्या निधियाँ होगी? इन सब से बढ़ कर और ऊपर उठ कर जब वह अपने ही अन्तःकरण की गहराइयों में खो जाता है, तब ज्ञान-विज्ञान का ऐसा अनूठा प्रकाश वहाँ जगमगा जाता है कि वह सब कुछ ज्ञेय को जान जाता है। क्या होगा-यह विचार जब तक रहता है, वह रहस्य रहता है और उसको संभावना मान कर जानने की जिज्ञासा रहती है, किन्तु आत्म-साधना और सत्य शोध का सम्पूर्ण ज्ञान कर लेने के बाद वह सर्वज्ञ हो जाता है-सब जान जाता है। यही जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। इसी का अभ्यास रहस्य भेदन की प्रक्रिया से होता रहता है। जिज्ञासा जागती है, संभावना दिखाई देती है, साहस उछालें मारता है, साधना गहन बनती है, शोध सत्य की ओर बढ़ती है, तभी रहस्य बिंद जाता है-अनजाने ज्ञान को आत्मसात् कर लिया जाता है। इसी रीति से जब आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान से आलोकित हो उठती है, तभी उसकी सर्वज्ञता अभिव्यक्त हो जाती है।
रहस्य, जिज्ञासा, संभावना के साहसिक चरण जब साधना/शोध के पथ पर तेजी से आगे बढ़ते हैं तब ज्ञान-विज्ञान की प्रत्यक्ष उपलब्धि के आत्मसात् हो जाने में कोई भी शक्ति बाधक नहीं बन