SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और विज्ञान का सामंजस्य निखारेगा मानव चरित्र का स्वरूप धर्म और विज्ञान के प्रति जमी हुई वैचारिक प्रतिबद्धता ही दोनों के जीवन्त सामंजस्य को नकार रही है। इस विषय पर मर्मज्ञ विचारक स्व. उपाध्याय अमर मुनि का चिन्तन अनुकरणीय है। वे कहते हैं-"किसी भी परम्परा के पास ग्रन्थ या शास्त्र कम-अधिक होने से जीवन के आध्यात्मिक विकास में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। यदि शास्त्र कम रह गये तो भी आपका आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊंचा हो सकता है, विकसित हो सकता है और शास्त्रों का अम्बार लगा देने पर भी आप बहुत पिछड़े रह सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए जिस चिन्तन और दृष्टि की आवश्यकता होती है वह तो अन्तर से जागृत होती है। जिसकी दृष्टि सत्य के प्रति जितनी आग्रह रहित एवं उन्मुक्त होगी, जिसका चिन्तन जितना आत्ममुखीन होगा, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकेगा।...मैंने देखा है, अनुभव किया है- ग्रंथों एवं शास्त्रों को लेकर हमारे मानस में एक प्रकार की वासना, एक प्रकार का आग्रह-जिसे हठाग्रह ही कहना चाहिए पैदा हो गया है। आचार्य शंकर ने विवेक-चूड़ामणि में कहा है- देह वासना एवं लोकवासना के समान शास्त्र वासना भी यथार्थ ज्ञान की प्रतिबंधक है आचार्य हेमेन्द्र ने इसे ही "दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेद्यः सतामपि" कह कर दृष्टिरागी के लिए सत्य की अनुसंधित्मा को बहुत दुर्लभ बताया है। ... हम अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद विचार पद्धति बात-बात पर जो दुहाई देते हैं, वह आज के राजनीतिकों की तरह केवल नारा नहीं होना चाहिए, हमारी सत्य दृष्टि बननी चाहिए, ताकि हम स्वतंत्र अप्रतिबद्ध प्रज्ञा से कुछ सोच सके। जब तक दृष्टि पर से अंध श्रद्धा का चश्मा नहीं उतरेगा, जब तक पूर्वाग्रह के खूंटे से हमारा मानस बंधा रहेगा, तब तक हम कोई भी सही निर्णय नहीं कर सकेंगे। इसलिए युग की वर्तमान परिस्थितियों का तकाजा है कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नये सिरे से सोचें । प्रज्ञा की कसौटी हमारे पास है और यह कसौटी भगवान् महावीर एवं गणधर गौतम ने, जो स्वयं सत्य के साक्षात्दृष्टा एवं उपासक थे, बतलाई है I " 'पन्ना समिक्खए धम्मे" (उत्तराध्ययन 23-25) अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की, सत्य की समीक्षा कर सकती है-उसी से तत्त्व का निर्णय किया जा सकता है ( ग्रन्थ 'चिन्तन की मनोभूमि', अध्याय 31, पृष्ठ 303-304)।" जैन दर्शन की वैज्ञानिक विरासत है-धर्म विज्ञान सामंजस्य की प्रेरणा : भारतीय विज्ञान के क्षेत्र में जैन दर्शन की प्राचीन वैज्ञानिक विरासत अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है, बल्कि वह वैज्ञानिक प्रगति का एक मूल्यवान स्रोत भी है। महान् जैन आध्यात्मिक परम्पराओं तथा उनके प्रवर्तकों ने व्यापक रूप से भारतीय चिन्तन एवं वैचारिकता को मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों में प्रभावित किया - 1. परमाणुवाद, 2. अनेकान्तवाद तथा 3 अंक सिद्धान्त सहित गणितीय विधियां । वास्तविकतावादी दृष्टिकोण के कारण जैन दार्शनिकों ने यह आवश्यक समझा कि वे इस भौतिक संसार की मौलिकता के विषय में संतोषजनक स्पष्टीकरण दें। जैन सिद्धान्तों 'अनुसार कर्म भौतिक स्वभाव वाला पुद्गल होता है, किन्तु उसका शरीर और आत्मा के साथ ऐसा बंध हो जाता है कि उसकी निर्जरा हुए बिना वह छूटता नहीं है। मृत्यु के बाद भी वह कार्मण शरीर के रूप आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। इस प्रकार कर्म पुद्गल के अणुओं का ऐसा हलन चलन होता है कि वे सम्बन्धित आत्मा द्वारा किये जाने वाले शुभ व अशुभ कार्यों के अनुसार 333
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy