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धर्म और विज्ञान का सामंजस्य निखारेगा मानव चरित्र का स्वरूप
देते हुए अब्दुल कलाम ने बताया कि इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। उन्होंने अनुभव किया कि किस प्रकार विवेकशील आध्यात्मिक और वैज्ञानिक नायक एक साथ मिल कर मानव जीवन और उसके कल्याण को बढ़ावा देते हुए जनहित का दायित्व निभा सकते हैं। ये बिशप विश्वव्यापी मानस के एक उदाहरण थे। कलाम ने आगे कहा- वह चर्च जहां रॉकेट डिजाइन सेन्टर कायम हुआ और बिशप का वह घर जहां हम वैज्ञानिकों ने कार्य किया-सदा मेरी स्मृति रहेगा।
दूसरा समाचार है दिल्ली की एक विचार गोष्ठी का, जहां कई देशों के विशेषज्ञ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने विज्ञान, धर्म और विकास विषय पर गहरी चर्चाएं की। इसमें इस्राइल बटाई टीचिंग सेन्टर के निदेशक भौतिक विज्ञानी फरजन अरबाब का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। उन्होंने कहा - विज्ञान आज भी हमारे विश्व को समझने की कोशिश में लगी जानकारी की एक विधि है, किन्तु इससे विज्ञान न तो मूल्यवत्ता प्राप्त कर सकता है और न ही विश्व के अर्थ और उद्देश्य को खोज सकता है। उन्होंने महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाईन के प्रसिद्ध सिद्धान्त को दोहराया कि विज्ञान धर्म के बिना अंधा है और धर्म विज्ञान के बिना लंगड़ा है। अरबाब ने अपने इस भाषण में निष्कर्ष निकाला कि सभ्यता की वास्तविक प्रगति तभी संभव होगी जब विज्ञान और धर्म साथ मिलकर शान्तिपूर्वक सत्य की खोज में जुटेंगे। आज जितनी विकास से सम्बन्धित विचारधाराएं हैं, वे मानवीय एवं आध्यात्मिक जरूरतों को नजरअन्दाज करती हैं और केवल भौतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करती है। अब विज्ञान और टेक्नोलॉजी को मानवाभिमुखी होना होगा। यह शुरूआत केवल कुछ व्यक्ति ही नहीं कर सकेंगे, यदि बहुसंख्यक लोगों की लगातार उपेक्षा ही की जाती रहेगी। इस्राइल के इस भौतिक वैज्ञानिक ने स्पष्ट किया कि धर्म निश्चित रूप से नैतिकता का प्रश्न उठा कर टेक्नोलॉजी पर सीमित रहने का प्रतिबंध लगा सकता है, किन्तु उसके समर्थकों को भी शोध के नए क्षेत्रों पर बिना विचारे प्रतिबंध लगाने के निर्देश जारी नहीं करने चाहिए।
इन दोनों समाचारों का अभिप्राय एक सा है कि धर्म और विज्ञान का समन्वय संभव ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इनसे यह ध्वनि भी निकलती है कि यह समन्वय अवश्यंभावी भी है। समग्र जीवन में धर्म और विज्ञान का सामंजस्य क्या संभव है ? :
अब तक का इतिहास बताता है कि धर्म और विज्ञान के बीच में संघर्ष जैसे अन्तर्निहित रहा है। इस संघर्ष का मूल कारण है- विश्व रचना के कारण का मतभेद । धर्म सृष्टि को रचित मानता है तो विज्ञान उसे विकासवाद की फलश्रुति बताता । शुरू से यह विवादास्पद रहा है। इस विवाद की जड़ें गहरी है और मस्तिष्क में यह धारणा जम गई है कि दोनों के सिद्धान्तों तथा विधि विधानों में बुनियादी फर्क है। धर्म सबसे पहले विश्वास और आस्था की मांग करता है और एकनिष्ठ आस्तिकता चाहता है। विश्वास में प्रमाण की आवश्यकता वह नहीं मानता, बल्कि दरअसल तो वह प्रमाण मांगने की मनोवृत्ति को ही निरुत्साहित करता है। धर्म की नींव ही आस्तिकता के जिस विश्वास पर खड़ी हुई है, अगर उसे ही कोई छेड़े तो वह बर्दाश्त के काबिल नहीं माना जाता और निकृष्टतम कहा जाता है। धर्म की मांग है। प्रत्येक को धर्म के अमुक सत्य को बिना ननूनच ( प्रश्न या हिचकिचाहट) के स्वीकार करना चाहिए। स्पष्ट है कि सभी धर्म अपनी-अपनी मान्यताओं को एक-दूसरे से विशिष्ट बताते हैं
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