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________________ रहस्यों, संभावनाओं तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों से भरा है यह संसार! (लोकोपकार का यही कारण है कि) धीर, वीर, गंभीर पुरुष अपने चरित्र बल, अपने शौर्य तथा अपनी साधना-शोध शक्ति को विशिष्ट बनाते हुए इस रहस्यपूर्ण संसार की छिपी हुई या अज्ञात परतों को स्वयं जानते रहे हैं, सबको समझाते रहे हैं और उनके माध्यम से संसार को जीवन विकास के नए मार्ग सुझाते रहे हैं। सामर्थ्यवान पुरुष ऐसा कठिन कार्य प्रत्येक युग में सम्पन्न करते रहे हैं, आज भी कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे। ये दीपस्तंभ ही तो सामान्य जीवन के तारणहार होते हैं, नायक और आदर्श होते हैं। आग से तप कर सोना शुद्ध ही नहीं होता बल्कि तपते रह कर वह कुन्दन बन जाता है। संसार के रहस्यों को भेदने की जिज्ञासा का रोमांच : एक नन्हा शिशु माँ की कोख से बाहर आता है और पहली बार अपने समक्ष प्रस्तुत संसार के दृश्यों को देखने लगता है तो उसकी आंखें आश्चर्य से विस्फारित हो जाती हैं और बार-बार चारों ओर घूमती रहती हैं। उन आंखों में एक सन्देश होता है रहस्य भेदने का, यानी कि जो अब तक (गर्भावस्था तक) उसके लिए अनजाना था, रहस्य था, वह खुल रहा है-उसकी दृश्यावलियाँ सामने आ रही हैं। वह शिशु उन्हें देखता है एक जिज्ञासा के साथ कि वह उन्हें जाने और उस सारे वातावरण को समझे जो अब तक उसके लिए रहस्य बना हुआ था। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता जाता है, नए-नए रहस्यों की वह कल्पना करने लगता है, उन्हें जानने और जानते रहने की जिज्ञासा पालता है, अपनी उस जिज्ञासा के बल पर वह अधिक से अधिक जानता रहता है। जानने और अधिकतम जानने की भूख ऐसी ही होती है तथा यही भूख उसे जीवन भर नए-नए रहस्यों को भेदने की शक्ति देती है। रहस्य भेदन का यह रोमांच अतीव आकर्षक ही नहीं होता, परम शक्तिदायक भी होता है। यह रोमांच पैदा करती है जिज्ञासा, तो जानना जरुरी है कि क्या और कैसी होती यह जिज्ञासा? जिज्ञासा अर्थात् नया जानने की इच्छा। जिस स्तर पर जो कुछ जाना जा रहा है, उससे अधिक और नया जाना जा रहा है, उससे अधिक और नया जाना जाए-यह चेतनाशील प्राणी का लक्षण है। यह जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, उतनी ही वह कठिन से कठिन रहस्यों का भेदन करने में भी समर्थ बनती है। जिज्ञासा का एक ही प्रतिफल होता है-अनजाने को जानना, रहस्य को भेदना। रहस्य भेदन का प्रतिफल होता है नए ज्ञान का उद्घाटन एवं ज्ञान का विस्तार । नया ज्ञान नई उपलब्धियों के द्वार खोलता है। फिर इन उपलब्धियों का प्रयोग यदि सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय होता है तो वह रहस्योद्घाटक पुरुष मानवता का मित्र और गुरु बन जाता है। उसका वह विस्तृत ज्ञान ही दर्शन की दिशा में प्रवृत्त होता है। जानने का नाम ज्ञान है तो देखने का नाम दर्शन । दर्शन में ज्ञान की स्पष्टता प्रत्याशित होती है। यह दर्शन ही साधक को सत्य-दर्शन की ओर ले जाता है। यदि जिज्ञासा समुद्र की सतह है तो दर्शन है समुद्र का निचला तल और जिज्ञासा एवं दर्शन के बीच में होता है ज्ञान का अथाह जल। यही रहस्यों की त्रिपुटी है। इसी जल में डुबकियाँ लगाते रहने का प्रयोजन माना जाना चाहिये, इस मानव जीवन का कि प्रत्यक्ष उपलब्धियों के मोती चुन-चुन कर बाहर संसार में लाए जा सकें और सामान्य जन को उस उत्थान प्रक्रिया से परिचित बनाया जा सके।
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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