________________
सुचरित्रम्
सज्जनानाम्) और दुर्जन वह, जिसका मन अलग, वचन अलग और उससे कर्म अलग होता है। यह व्याख्या किसी ग्रन्थ से सीखने की जरूरत नहीं पड़ती, वह व्यावहारिक अनुभवों में यदा कदा साकार रूप में सामने आती ही रहती है। इन्हीं अनुभवों से सीखा और समझा जाता है कि सज्जनता कैसी और दुर्जनता कैसी होती है? यही अनुभव विवेक को जगाता है कि किस दिशा में अपने जीवन को ढालना चाहिए। आप ही सोचें कि आप सज्जन बनना चाहेंगे या दुर्जन? आपका सज्जन से वास्ता पड़े या दुर्जन से? यदि आप सज्जन बनना और सदा सज्जनता पाना चाहते हैं तो सीखना और सिखाना पड़ेगा कि मन, वाणी तथा कर्म को जोड़ कर उन्हें एक रूप व संयुक्त कैसे बनाए रखें? ___ जब तक ज्ञान और आचरण की जड़ता को मिटाने के सार्थक प्रयास नहीं किये जाएंगे तथा मन, वाणी और कर्म को अलग-अलग दिशाओं में भटकने दिया जाता रहेगा, तब तक ये चार समस्याएं पैदा होती रहेगी एवं जटिल रूप धारण करती रहेगी-1. दृष्टिकोण मिथ्या बनेगा तथा मिथ्या बना रहेगा और सम्यक्त्व दूर की कौड़ी ही बना रहेगा। 2. नई-नई इच्छाएं उभरती रहेगी और तृष्णा न जीवन में शान्ति आने देगी और न उसे सच्चे धर्म से जुड़ने देगी। 3. विवेक पर प्रमाद का पर्दा पड़ जाएगा और पड़ा रहेगा। अन्दर-बाहर जड़ता पसरी रहेगी। 4. प्रतिकूलता मिलने और अनुकूलता न मिलने पर आवेश, उत्तेजना, क्रोध, हिंसा आदि की विकृत वृत्तियाँ स्वभाव में गहराती तथा विभाव में भटकाती जाएगी। ऐसी जड़ता दो दशाओं में जटिल बनती है-1. अज्ञान की दशा में, जब संकल्पोंविकल्पों एवं आवेगों-संवेगों का सही ज्ञान नहीं होता तथा 2. मूढ़ता की दशा में, जब जानकर भी न जानने की मूढता यानी तृष्णामय धूर्तता वृत्तियों और प्रवृत्तियों में फैली रहती है। ज्ञान और आचरणमय अभ्यास में इन दोनों का समाधान है।
मन, वाणी और कर्म को सुधारने-साधने का नाम ही योग है और सच्चे अर्थों में यही चरित्र विकास है। मनोयोग से वचन योग तथा दोनों से कर्म योग की पुष्टि होती रहे तो चरित्र में कहीं दाग तक लगने का अवसर नहीं आता है। कर्म योग का अर्थ किसी कार्य में लग जाना मात्र ही नहीं होता है। उससे कार्य को कामयाब करने का कमाल भी हासिल होना चाहिए। कार्य में कमाल का मतलब है-आपदा आने पर भीतर-बाहर का संतुलन न टूटे और कार्य की गति अन्त तक अबाध रूप से बनी रहे। - .. अपने आन्तरिक बल से ऐसे चरित्र का निर्माण और विकास किया जाना चाहिए जो एक ओर धर्म स्वरूप एवं धर्माचरण में किसी भी बहाने से किसी भी रूप में रूढ़ता का प्रवेश न होने दे तो दूसरी ओर आज फैली हुई रूढ़ता तथा जड़ता को जड़मूल से मिटा डालने के लिए कटिबद्ध हो जाय। ऐसा चरित्र विकास न केवल व्यक्ति में उत्पन्न हो, बल्कि उसके माध्यम से समाज, राष्ट्र और विश्व तक में स्थिरता के साथ प्रसारित हो जाय। ऐसे चरित्र विकास का अभियान कठिन अवश्य है किन्तु असाध्य कदापि नहीं। इसके लिए तीनों योग और प्रधान रूप से कर्म योग को साधने की
अनिवार्यता रहेगी। कर्मयोग सतत सक्रिय रहे तथा अडिग भी रहे, इसके लिए इन सूत्रों का अनुसरण लाभदायक रहेगा1. कर्म बाधक आपदा के आने को पहले ही भांप लें तथा उसे भांप कर या आपदा के आते ही मन
326