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सुचरित्रम्
युवा रूप में स्वस्थ रूप से विकसित करे। 2. कोषाणुओं की यथावय वृद्धि होती रहे । 3. अपेक्षित ताप और ऊर्जा शरीर को मिले। 4. शरीरगत रासायनिक क्रियाएँ क्षतिग्रस्त न हों। 5. शरीर श्रमशील भी हो और शक्तिशाली भी। 6. रक्त में अम्लीय व क्षारीय तत्त्वों का समुचित अनुपात बना रहे। 7. सात्विक आहार का श्रेष्ठ फल यह है कि मानव शरीर धर्म साधना का सहायक बने। इसी दृष्टिकोण से आहार की शुद्धाशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। . आहार की महत्ता शारीरिक विकास तथा स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है, उसका प्रभाव मानव को मानवीय मल्यों से युक्त बनाने में प्रकट होना चाहिए। कहा है-'जैसा खावे अन्न, वैसा बने मन'। इसका अभिप्राय यही है कि मानवता का सीधा संबंध भोजन से है-भोजन की सात्विकता से है, जो शाकाहार से ही प्राप्त हो सकती है। शाकाहारी व्यक्ति एवं जातियाँ शांत, स्नेहपूर्ण, अहिंसक और दयाशील होती है जबकि मांसाहारी हिंसक, क्रूर एवं आक्रामक। अतः शाकाहार सच्चरित्रता का कारणभूत भोजन है। भान भूले और भयभीत मानव के लिए श्रद्धा पर लग जाता है प्रश्नचिह्न :
धर्माचरण की जड़ता मानव को भान भूला देती है और साम्प्रदायिक कट्टरता तब उसे इतना डरा देती है कि उसके द्वारा व्यक्त की जाने वाली श्रद्धा को क्या श्रद्धा का नाम भी दिया जा सकता है? उस श्रद्धा के आगे बड़ा-सा प्रश्नचिह्न लग जाता है। ऐसी श्रद्धा का सबसे बड़ा कारण माना जाता है भय, जो परोक्ष रूप से संकीर्ण दायरों से फूटता रहता है। कट्टरता उसके मन-मानस को झिंझोड़ती रहती है और वह अपने में नायकों के समक्ष समर्थ अनुयायी नहीं, विवश कठपुतली के रूप में बदल जाता है। तब भय उसके भीतर मंडराता रहता है और सम्प्रदाय-संघर्ष चलते रहते हैं तथा वही सम्प्रदायों के तथाकथित धर्माचरण की खुराक बने रहते हैं।
जब श्रद्धा धूमिल और अंधी हो जाती है तो व्यक्ति का विवेक भी डूब-सा जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि उसका आत्मविश्वास डगमगा जाता है। उसकी निर्णायक बुद्धि कुंठित हो जाती है और वह किंकर्तव्यविमूढ बन जाता है। ऐसी ही उसकी भान भूली दशा हो जाती है। यह दशा स्वबोध को क्षीण बना देती है। यह अनुभव तक समाप्त-सा हो जाता है कि हमारी आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं और हम अपने स्व को जगा कर चरित्र विकास के उन्नत पथ पर अग्रगामी हो सकते हैं।
धर्माचरण की रूढ़ता से उत्पन्न होने वाले ऐसे गंभीर परिणामों को अब अतीव गंभीरता से लेना चाहिए। धर्म और आचरण को जब जीवन से अलग कर दिया जाता है तब न तो सत्य को साथ में रखा जा सकता है और न ही गुणों की सम्पन्नता बचाई जा सकती है। आज यह निश्चय करने की वेला है कि हर कीमत पर सत्यनिष्ठा बनाई रखी जानी चाहिए क्योंकि इसी पर गुणों की अभिवृद्धि अथवा चरित्र का विकास निर्भर करता है। जब किसी का चरित्र विकास होता है तो उसकी प्रतिष्ठा
और प्रामाणिकता विस्तार पाती है और उसका धर्माचरण सत्यनिष्ठ बन जाता है। सत्य के प्रति समर्पण सदा ही क्षमता और महानता का आदर्श स्रोत बना रहता है।
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