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सुचरित्रम्
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सारी ईंटें मजबूती से आपस में इस तरह जुड़ जाती है कि सारी नींव ही एकरूप हो जाती है, फिर उस पर चरित्र विकास की जो इमारत बनती है, उसके ढहने का कभी कोई खतरा पैदा ही नहीं होता । आत्मा जब स्व में स्थित होकर अपनी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों में निरत रहती है तब उसकी गति मौलिक 'एवं स्वाभाविक होती है। किन्तु जब वे ही वृत्तियां एवं प्रवृत्तियां बहिर्मुखिता में भटक जाती हैं उलझ जाती हैं तब वह गति वैभाविक कहलाती है। स्वभाव से विपरीत भाव यानी विभाव। विभाव मानवीय गुणों का ह्रास करता है और स्वभाव उनका विकास। यह अनुभव में आता रहता है कि जब जब मानव अपने भीतर की आवाज को ठुकराता है-अपने स्वभाव से मुंह मोड़ता है तब तब वह भान भले ही भूलता रहे, पर इतना ध्यान तो उसे रहता है कि जो कुछ वह कर रहा है - जैसे बलात् कर रहा है और वह अच्छा नहीं है। किन्तु बहिर्मुखता का आकर्षण उसे अपने स्वभाव के उलट काम करते रहने को विवश कर देता है ।
इस मनःस्थिति से आज उबरने की ज्वलंत समस्या है। जीवन में गुलामी रहे तो गुण कहां से विकसेंगे - गुलाम का तो जमीर ही जिन्दा नहीं रहता। स्वतंत्रता के सुख का स्वाद जो एक बार चख लेता है, अन्तर्मुखी बनने की चाह जगा लेता है, उसके चारित्रिक गुणों का विकास सुगम बन जाता है। विकासशील गुणों के चौदह स्थानों के विवरण में बताया गया है कि बुराइयों को, अशुभता को, पापकर्मों को केवल दबा देने का ही काम किया तो वह अधूरा रहेगा, बल्कि दबी हुई अशुभ मनोवृत्ति जब फिर से भड़केगी तो वह कई गुना विस्फोट बन कर प्राप्त गुण विकास को मटियामेट कर देगी । अतः अशुभता को नष्ट करते चलिए ताकि प्राप्त शुभता स्थिर और सुगम बन सके तथा गुण विकास को अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा सके। 'नींव हिली तो इमारत ढही' की कहावत को आगे इस तरह बढ़ावें कि 'और छत डली तो काम सही' अर्थात् गुण विकास के बारहवें स्थान को इमारत की छत समझ लें।
अहिंसक क्रान्ति का आगाज, विश्वव्यापी मंथन एवं फलश्रुति :
माध्यम
जो दूसरे विश्व युद्ध (1944-45 ) के बाद के इतिहास पर नजर रखे हुए हैं, राष्ट्रों के बीच उठने वाले विवादों तथा उनके निवारण के उपायों की समीक्षा करते रहते हैं तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के राष्ट्रों के दृष्टिकोणों को परखते रहते हैं, वे विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि तब से सभी विश्व शक्तियों का झुकाव हिंसा की अपेक्षा अहिंसा की ओर बढ़ा है। लाख उत्तेजनात्मक वक्तव्यों, घोषणाओं आदि के उपरान्त भी एक मेज पर बैठ कर चर्चाएं करने, आपसी समझौतों पर बल देने तथा शान्ति बनाये रखने की मनोवृत्ति का राष्ट्रों के बीच विकास हुआ है। भारत ने जिस अहिंसात्मक रीति-नीति से अपनी स्वतंत्रता का संघर्ष चलाया और बाद में भी विश्व मैत्री की अपनी विदेश नीति जारी रखी उसका परोक्ष प्रभाव सारी दुनिया पर पड़ता रहा है। अणु अस्त्रों और संहारक सामग्री
अम्बार पर बैठ कर भी आज ये सब अपना महत्त्व या अपनी उपयोगिता खोते जा रहे हैं। पांचों अंगुलियां एक सी नहीं होती और कई ताकतें आज भी हिंसा, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता फैलाने में लगी हैं, फिर भी उनकी तुलना में शान्ति की शक्तियों का पलड़ा भारी हो गया है और उनके द्वारा हिंसा के कारणों को मिटाने की कोशिशें की जा रही हैं। अब इस स्तर पर कहा जा सकता