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________________ सुचरित्रम् उद्देश्य तब साफ हो जाता है कि इसके बल पर संसार में स्वतः चालित (ऑटोमेटिक) अथवा स्वैच्छिक राज-समाज व्यवस्था का सूत्रपात किया जा सकता है। इसकी रोशनी में धर्म की यह आलोचना अनुपयुक्त लगती है कि वह सिर्फ परलोक सुधार के विचार पर ही टिका है यानी कि उसके अस्तित्व का प्रमुख आधार व्यक्ति है, न कि समूह, समाज या अन्य सामुदायिक संगठन । धर्म का यह संकुचित स्वरूप बाद में बनाया गया है, जब अनुयायियों या धर्म नायकों ने प्रवर्तकों की वाणी का लाभ अपनी कट्टरता और अपनी निजी प्राभाविकता के लिए उठाना शुरू किया। यह गलत विश्लेषण सामान्य जन को भ्रमित करता रहा और धर्म का वास्तविक आशय लुप्त होता रहा। यही कारण है कि श्रेष्ठ सिद्धान्तों के उपरान्त भी आज के अधिकतर नामधारी धर्म तोड़ने का काम ज्यादा करते हैं बजाए जोड़ने के। धर्म से उपजाई इस विकृति का नाम ही साम्प्रदायिकता पड़ा जो उत्तेजना, फूट और हिंसा फैलाने लगी। इस सम्बन्ध में आज विचार, क्रान्ति और समुच्चय जागृति की अनिवार्यता है। चरित्र निर्माण अर्थात् धर्म के आचरण का प्रधान लक्ष्य है लोक-कल्याण : __अब इस भ्रम को दूर करने का योजनाबद्ध यत्न किया जाना चाहिए कि धर्म का लक्ष्य मात्र आत्म- कल्याण ही है, क्योंकि वर्तमान समाज रचना ने सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज पर निर्भर है और वह प्रत्येक सामाजिक गतिविधि से प्रभावित होता है। व्यक्ति का कोई भी एकाकी उद्देश्य तब तक सार्थक नहीं, जब तक उसे समाज का सहयोग नहीं मिलता। यह भ्रम भी निर्मूल हो कि धर्म केवल भावी जन्म को ही देखता और सुधारता है, क्योंकि यदि वर्तमान विकृत ही बना रहा तो उसकी नींव पर भविष्य उत्तम कैसे बन सकेगा? आशय यह है कि धर्म का परम उद्देश्य लोक कल्याण है और लोक कल्याण में आत्म-कल्याण निहित रहता ही है। आप देखते हैं कि कोई वैरागी बन कर जब साधुत्व की दीक्षा लेता है तो परिवार आदि को छोड़ देता है, किन्तु यह कम लोग समझते हैं कि वह तब सकल विश्व का हितैषी बन जाता है। परिवार का छोटा दायरा छोड़ कर वह विश्व परिवार को अपना लेता है और तदनुसार ही वह सबके कल्याण के लिए अपने प्रवचनों का क्रम चलाता है। विश्व परिवार में छोटा परिवार तो समाया हुआ रहता ही है। इस प्रकार चरित्र निर्माण की बात हो अथवा धर्म के आचरण की, उसके पीछे लोक कल्याण का प्रधान लक्ष्य ही साधनारत होता है। यों चरित्र का निर्माण और धर्म का आचरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिनका लक्ष्य एक ही है और वह है मानवीय मूल्यों का प्रसार ताकि लोक कल्याण की भावना को बल मिले। एक कल्पना करें, जिसके दो हिस्से हों। एक हिस्सा इस प्रकार का कि किसी निर्जन स्थान में एक अकेला व्यक्ति-कोई सम्पर्क नहीं, कोई किसी के साथ सहवास नहीं। तब बताइए कि वह अपने कर्तव्यों का किसके साथ निर्वाह करेगा? वह ईमानदार है पर किसी का साथ नहीं, कोई लेनदेन नहीं तो उसकी ईमानदारी का प्रयोग कहां हो? इसी तरह एक-एक चारित्रिक गुण को ले लीजिए और उसके प्रयोग के बारे में सोचिए । परिणाम यह आएगा कि चरित्र निर्माण यानी कि धर्म का आचरण शून्यवत् हो जाएगा। अब कल्पना के दूसरे भाग को लें। भरे पूरे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में व्यक्ति का सम्पर्क है, सम्बन्ध है तथा अनेकानेक गतिविधियों का जाल है आज की 266
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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