________________
नैतिकता भरा आचरण ले जाता है सदाचार के मार्ग पर
से नैतिकता विलुप्त होती जा रही है। निजी संबंधों में, व्यापार-व्यवसाय में और राजनीति-अर्थनीति में नीतिगत बातें महत्त्वहीन होने लगी हैं। पहले राजनीति का मतलब सेवा और कर्तव्य बतलाया जाता था, परन्तु आज राजनीति मात्र सत्ता या सियासत के लिये ही बन कर रह गई है। देश इसीलिये पतन की ओर जा रहा है। निजी स्वार्थ और लोभ के खातिर खुदगर्जी इतनी बढ़ गई है कि धर्म-अधर्म या नीति-अनीति के भेद ही खत्म होते जा रहे हैं। इसी कारण आज नैतिक धरातल मजबूत बनाने की सख्त जरूरत है। नीति के बिना धर्म और धर्म के बिना व्यक्तित्व निर्माण की संभावना नहीं मानी जा सकती है। . नैतिकता और धर्म का मर्म समभाव या समता में छिपा हुआ है। शुभ या अशुभ पहले भावनाओं से तोला जाता है। मन जहां विषमताओं से भरा हो, समझिये कि वहीं पर अनीति है, अधर्म है। मन में कई तरह के विकारों की गंदगी विषमताओं की परिचायक होती है और जिसे दूर किए बिना समता की साधना संभव नहीं। व्यक्ति का अपराध मात्र उसकी क्रिया से ही साबित नहीं होता, बल्कि उसके आशय (इंटेशन) को प्रमाणित करना होता है। वस्तुस्थिति यह है कि आचरण में ढल कर ही नैतिकता परिपुष्ट बनती है। आचरण को नीतिमय एवं धर्ममय बनाने में सतत जागरूकता जरूरी होती है। आत्मकल्याण के साथ जनकल्याण की भावना भी उससे स्पष्ट होनी चाहिये। तभी सभी प्रकार के स्वार्थों और खासकर कीर्ति लाभ के स्वार्थ से भी ऊपर उठा जा सकता है और निर्लिप्तता की अनुभूति ली जा सकती है। ___ किन्तु वर्तमान परिस्थितियां अतीव ही चिन्तनीय बनी हुई है। मेरी राय तो साफ है कि चारित्रिक पतन को आज का सबसे बड़ा सांस्कृतिक खतरा माना जाना चाहिए तथा इस चारित्रिक पतन कों न्यूनतम समय में रोकने के लिये साधु सन्तों और गृहस्थों को एक दूसरे का पूरक मानते हुए पारस्परिक नियंत्रण की व्यवस्था मान्य करनी चाहिए। नीति, चरित्र तथा धर्म से संबंधित सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान का यह रामबाण उपाय है कि स्व (आत्मा) के प्रति समाप्त होकर पर (अन्य) एवं पर-पदार्थों के प्रति अपने राग और व्यामोह को गला दें। तब निरपेक्ष भाव से निकाला गया कोई भी समाधान अवश्यमेव फलदायक होगा। . आज मानव अपने असली घर को नहीं पहचान कर केवल ईंट-चूने-सीमेंट से बने घर को ही सजाने-संवारने में लगा हुआ है। इतना ही नहीं, उसी में रहकर निर्भयता महसूस करने की वह व्यर्थ चेष्टा भी कर रहा है। वह भ्रमग्रस्त है। उसे अपने असली घर को पहचानना होगा-जीवन के साध्य को जानना होगा। बाहर ही बाहर सुख की खोज की जा रही है जबकि उसका निवास तो स्वयं के ही अन्तर्मन में है। लेकिन इस खोज को कामयाब बनाने के लिये आचरण को नैतिक तथा चरित्र को सुगठित बनाकर सदाचार एवं समता मार्ग पर सर्वकल्याण की भावना के साथ आगे बढ़ना होगा। जब 'मैं' और 'मैं ही सब कुछ हूँ' का अहंकार मिटेगा और राग भाव दूर होगा तभी जीवन नैतिक बन सकेगा। ध्यान रखें कि नैतिक जीवन का सुख अपार होता है और उसकी सरलतम अति आनन्ददायक, किन्तु उसे साधने में सच्चे पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।
225