________________
सुचरित्रम्
उन धर्म सिद्धान्तों, धार्मिक मतों, विधियों और संस्कारों में नहीं है जिनसे हम में से अनेकों को विरक्ति होती है, अपितु युगों की गंभीरतम बुद्धिमत्ता में, अनवरत तत्त्वज्ञान में, सनातन मूल्यों में धर्म का सार है, जो आधुनिक विचार की किंकर्तव्यविमूढ़ता और आधुनिक अस्तव्यस्तता में हमारा एकमात्र पथ प्रदर्शक है। विभिन्न धर्म सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि सत्य के उन विभिन्न पक्षों और धारणाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें कि लोग विश्वास कर रहे हैं। यही कारण है कि चरित्र निर्माण के संबंध में सभी धर्मों की सहमति होने के उपरान्त भी चरित्र निर्माण एवं विकास की उनकी प्रक्रियाओं में एकरूपता नहीं है। अतः चरित्र निर्माण की रूपरेखा को सर्वसम्मत बनाने का यत्न किया जाना चाहिये। धर्म और समाज की परस्परता का निर्वाह सम्यक् चरित्र के आधार पर ही संभव है। विभिन्न धर्म ग्रंथों में वर्णित है उत्कृष्ट चारित्रिक गुण :
इसे भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परम्परा का प्रभाव कहिए कि प्रत्येक पौर्वात्य धर्म के ग्रंथों में चारित्रिक गुणों का विशद् वर्णन ही नहीं मिलता है, बल्कि सब धर्मों ने चरित्र निर्माण को प्राथमिकता भी दी है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पाश्चात्य अथवा अन्य धर्म ग्रंथों में चरित्र निर्माण को प्रमुखता नहीं दी गई है। सभी धर्मों तथा दर्शनों ने चारित्रिक गुणों का उल्लेख भी किया है तथा उन्हें जीवन में अपनाने पर भी बल दिया है। ___ डॉ. ऐनीबिसेन्ट ने संसार के धर्मों में सात को प्रमुख माना है (ग्रंथ-सेवन ग्रेट रिलीजन्स), जिनके नाम हैं-हिन्दू धर्म, पारसी धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म तथा सिख धर्म। चरित्र निर्माण के संदर्भ में इन धर्मों के ग्रंथों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जो उल्लेख आये हैं, उन्हें यहां सार रूप में अंकित किया जा रहा है। 1. चरित्र सम्पन्नता के लिये इच्छाओं का त्याग : हिन्दू धर्म में जीवन का अन्तिम लक्ष्य ईश्वरत्व ___ में विलीन होना कहा है और उसके लिये चरित्र सम्पन्नता के नित निरन्तर बढ़ते हुए चरण
चाहिए। इसके लिये मन में सतत रूप से उठने वाली इच्छाओं का त्याग करते रहना चाहिए। त्याग-बलिदान का क्रम ही बराबर चलते रहने से परमात्म भावों की जागृति होती है। बौद्धिक एवं भावनात्मक रूप से जब चरित्र गठित होता है तब जीवन में आध्यात्मिक सत्य प्रकट होता है (मुंडकोपनिषद्)। अपने चरित्रबल से ईश्वर को समझ लो- उसकी रचनात्मकता को समझ लो तो संसार का सब कुछ दर्पणवत् स्पष्ट हो जाता है (वृहदारण्यकोपनिषद)। तब वह द्वैत से अद्वैत हो जाता है-मैं (अहम्) का चार चरणों में रूपान्तरण होता है-(अ) मैं तुम्हारा हूँ, (ब) तुम तुम्हारे हो, (स) मैं तुम्हारा भक्त हूँ तथा (द) मैं 'वह' (ईश्वर) हूँ। उस आत्मा को त्रिमूर्ति स्वरूप मिलता है-(अ) सत् (आस्तित्व-एग्जिसेटेन्स),(ब) चित् (शिवदैविक-डिवाइन),
(स) आनन्द (ब्रह्मा, विष्णु वरदानब्लिस)। अन्तिम लक्ष्य को चरित्राधारित माना गया है। 2. प्रत्येक कार्य की पवित्रता आवश्यक : पारसी धर्म (जोरेस्त्रियनिज्म) में इस सिद्धान्त पर बल दिया गया है कि प्रत्येक कार्य में पवित्रता का होना आवश्यक है जो चरित्र निर्माण से प्राप्त होती है। यह पवित्रता व्यवहार में उतरनी चाहिए जो निजी या सार्वजनिक सभी कार्यों में दिखाई दे।
204