________________
सुचरित्रम्
मन-बुद्धि में उतर चुका है। कर्म सिद्धांत के तत्त्ववाद को शुभ की मर्यादा से आगे खींच कर अब उसे असामाजिक भाव और कृत्य का आश्रय बना लिया गया है। इससे उसकी सत्यता पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए गए हैं। याद रखना चाहिए कि सापेक्ष सत्य तक ही मनष्य का वंश है। यही नहीं, वह सत्य मानव-सापेक्ष होता है बल्कि यह भी कि वह देश काल-सापेक्ष होता है। ___ व्यष्टि के पाप कर्म के प्रभाव पर भी एक दृष्टि डालनी चाहिये। व्यष्टि जो पाप कार्य करता है, क्या वह सारी दुनिया को मैला करने वाला नहीं होता अपने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव से। वह पाप उस व्यक्ति को ही कष्ट नहीं देता, सारे समाज को कष्टित करता है। चूँकि पाप उस पाप करने वाले व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहता, उस व्यक्ति की अपनी क्षमा प्रार्थना भी पूरी कैसे होगी? उस पाप का त्रास चारों ओर फैलता है। आज दृष्टि और विचार को उत्तरोत्तर सामाजिक तथा सामाष्टिक बनाने का समय आ गया है। सच पूछे तो स्वयं अध्यात्म का भी यह तकाजा है, अथवा मान्यता प्राप्त अनेक धर्म और दर्शन समय का साथ देने में असमर्थ बन कर टूट जाने की स्थिति में पहुँच सकते हैं। आज का यह सच है कि अब संदर्भ निजता से हटकर परस्परता की श्रेणी में पहुंच गए हैं, अतः विचार को उसकी अनुक्रम से आगे बढ़ना होगा अन्यथा विचार प्रतिभागी बनेगा जो मुक्ति की दिशा में ले जाने की बजाए बन्धन में डाल देगा। दृष्टि को भी विचारानुकूल होना होगा। ___ व्यष्टि कर्म और समष्टि कर्म के इस विश्लेषण का सार यह है कि कर्म का स्वरूप आज सर्व सम्बद्ध हो गया है। सामाजिक कार्य एवं प्रभाव का दायरा इतना बड़ा हो गया है कि व्यक्ति कहीं भी उससे अनछुआ नहीं बच सकता, फिर उसका कोई भी कर्म अकेले उससे ही सम्बद्ध कैसे रह सकता है? उसके निजी पाप कर्म के कारण और परिणाम गहराई से खोजेंगे तो वे समाज की जडों में ही मिलेंगे। एक क्षुद्र मानव जब समाज का सहारा पाकर ही विराट् बन सकता है तो उस मानव का प्रत्येक कर्म शुभ अथवा अशुभ कहीं न कहीं समाज को प्रभावित करता ही है। चरित्र के प्रति निष्ठा एवं समर्पण व्यक्ति व समाज की जागृति के मुख्य बिन्दु ___ जीवन में चरित्र निर्माण के बाद उसका समुचित रीति से विकास करना होता है ताकि चरित्र की अतुल शक्ति का यथार्थ आभास हो सके। इस प्रकार के आभास के पश्चात् ही चरित्र के प्रति अटूट निष्ठा उत्पन्न होती है। सच्ची निष्ठा किसी भी तत्त्व के प्रति तभी पैदा होती है जब उसकी प्राभाविकता का अनुभव हो जाता है। इस निष्ठा के बल पर ही चरित्र सम्पन्नता चिरस्थायी बन जाती है तथा इसी निष्ठा की उत्कृष्ट मन:स्थिति में चरित्र साधक चरित्र संवर्धन के प्रति समर्पित भी हो जाता है। इस निष्ठा और समर्पण भावना से जिस प्रकार की अद्भुत जागृति सामने आती है उस से व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों प्रकार के जीवन आन्दोलित हो उठते हैं। इस दृष्टिकोण से चरित्र निष्ठा और उसके प्रति समर्पण भावना- ये दोनों वैयक्तिक एवं सामाजिक जागृति के दो महत्त्वपूर्ण बिन्दु बन जाते हैं। इन्हीं बिन्दुओं के फलित में अहिंसा, अपरिग्रह तथा अध्यात्म के शिखर तक पहुँचा जा सकता है।
चहुंमुखी उन्नति की इस दौड़ में व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक बनते हैं। यह दौड़ तभी सफल हो सकती है जब दोनों एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध भी रहें। व्यक्ति समाज से
180