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________________ सुचरित्रम् सही जानो (सम्यग् ज्ञान), सही मानो (सम्यग् दर्शन) के बाद जब सही करो (सम्यक् चारित्र) का चरण उठता है तभी चरित्र गठन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। यह प्रक्रिया आचरण की परिपक्वता के साथ प्रबल तथा प्रखर होती रहेगी। सही करो का आरंभ व्रत धारण करने से होता है। व्यसनों तथा पाप कार्यों की वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों से दूर रहने के लिए जो उपाय किए जाते हैं, उन्हें व्रतों का नाम दिया गया है, क्योंकि व्रत विरति रूप होते हैं (हिंसानृतस्तेयाब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम-तत्वार्थ सूत्र 7-1)। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह रूप पाप कार्यों से विरत होना व्रत है। व्रतों को आचरण में उतारना होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार व्रत धारण करता है, फिर भी आरंभिक तौर पर व्रत धारण आंशिक होता है। सामान्य रूप से और वह आंशिकता पुष्ट होते-होते पूर्णता की दिशा में गति करती है। आंशिक व्रतों के साथ अशुभ कार्यों से निवृत्ति होती है और सत्कार्यों के आचरण से शुभता के क्षेत्र में प्रवेश होता है। अशुभ प्रवृत्तियों पर अंकुश लगने से स्वयमेव शुभ प्रवृत्तियों में आचरण का चरण आगे से आगे बढ़ने लगता है। अंधकार हटने का परिणाम ही प्रकाश के आगमन के रूप में सामने आता है। व्रतों का आंशिक पालन चरित्रगठन के लिए प्राथमिक रूप से अनिवार्य माना जाना चाहिए कि एक सामान्य व्यक्ति अथवा गृहस्थ इन व्रतों को धारण करके चरित्रशोलता के मार्ग पर अग्रगामी हो सकता है (1) अहिंसा अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपात रूप हिंसा का त्याग । स्वशरीर में पीड़ाकारी, अपराधी तथा सापेक्ष निरपराधी के सिवाय शेष द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा न करना, न करवाना मन, वचन और काया से। इस व्रत के पांच अतिचार हैं जहाँ व्रत की अपेक्षा रखते हुए कुछ अंश में व्रत को भंग किया जाए, उसे अतिचार कहते हैं- 1. बंध-द्विपद (मनुष्य), चतुष्पद (पशु आदि) आदि को लापरवाही के साथ क्रोधवश निर्दयतापूर्वक गाढ़े बंधन से बांध देना। 2. वधकोड़े आदि से मारना वध है। यह अतिचार है जब अनर्थ और निरपेक्ष रूप से किया जाए। 3. छविच्छेद-शस्त्रों से अंगोपांगों का छेदन करना और निष्प्रयोजन या प्रयोजन होने पर भी हाथ, पैर, कान, नाक आदि का छेदन करना। 4. अतिभार-द्विपद, चतुष्पद आदि पर उनकी शक्ति से अधिक भार लादना। 5. भक्तपान विच्छेद-निष्कारण निर्दयता के साथ द्विपद, चतुष्पद के आहार पानी का विच्छेद करना। इन अतिचारों का व्रतधारक को परिहार करना चाहिए। (2) सत्य अणुव्रत-स्थूल मृषावाद का त्याग। दुष्ट अध्यवसायपूर्वक तथा स्थूल वस्तु विषयक बोला जाने वाला असत्य या झूठ स्थूल मृषावाद होता है। अविश्वास आदि के कारण-स्वरूप व्रतधारक इस स्थूल मृषावाद का दो करण (न बोलना, न बुलवाना) तथा तीन योग (मन, वचन तथा काया) से त्याग करता है। यह पांच प्रकार का हैं- वर कन्या सम्बन्धी झूठ गाय, भैंस आदि पशु सम्बन्धी झूठ भूमि सम्बन्धी झूठ किसी धरोहर को दबाना या उसके सम्बन्ध में झूठ बोलना तथा झूठी गवाही देना। अतिचारों का परिहार होना चाहिए क्योंकि अतिचार का लक्षण होता है कि व्रत भंग की पूरी तैयारी कर ली गई है। पांच अतिचार हैं-1. सहसाभ्याख्यान-बिना विचारे मिथ्या आरोप लगाना 2. रहस्याभ्याख्यान-एकान्त में सलाह करते हुए व्यक्तियों पर आरोप लगाना 3. स्वदार मंत्र भेद 168
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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