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________________ सुचरित्रम् दूसरी ओर गुणवृद्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ही आचार कहलाता है (आचरणं आचारः, आचरयेते इति वाऽचारः, पूर्वपुरुषा चरिते ज्ञानाद्य सेवनविधौ। आचरयेते गुणवृद्धये इत्याचार:2/368)। आचार शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थों में भी प्रयोग हुआ है, यथा (अ) ज्ञानाचारादि पंचविध आचारों में मर्यादा पूर्वक चलने के अर्थ में, (आ) साधु समाचारी के विषय में किए जाने वाले आचरण के अर्थ में, (इ) ज्ञानादि आवेसन रूप अनुष्ठान विशेष के अर्थ में (ई) श्रुतज्ञानादि विषय आसेवन रूप अनुष्ठान विशेष जो काल अध्ययन आदि में किए जाने वाले आचरण के अर्थ में, (उ) साधुओं द्वारा आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि के अर्थ में, (ऊ) अनुष्ठान विशेष के अर्थ में किया जाने वाला आचरण (2/368)। इस प्रकार आचार शब्द का व्यवहार अनेक अर्थों में हुआ है। आचार के अर्थ रूप में इनका भी उल्लेख है-आत्मचिंतन, आज्ञापालन, आत्मविश्वास, आनन्द देने वाला अथवा आत्मसंयम, आत्म-जागृति, आत्म-निर्भरता तथा आत्म-आलोचना का प्रदाता। आचार का वर्गीकरण भी विविध प्रकार से है। आचार निक्षेप चार प्रकार का है-(1) नामाचारनाम (2) स्थापनाचार-स्थापना (3) द्रव्याचार-नामन, धावन, वासन, शिक्षापन और (4) भावाचारदर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य । आचार पांच प्रकार का भी है-(1) ज्ञानाचार-नये ज्ञान की प्राप्ति एवं प्राप्त ज्ञान की रक्षा-आठ उपभेद-कालाचार, विनयाचार, बहुमानाचार, उपधानाचार, अनिवाचार, व्यंजनाचार, अर्थाचार और तदुभयाचार। (2) दर्शनाचार-सम्यक्त्व की शुद्ध आराधना-आठ उपभेदनिःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपवृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना। (3) चारित्राचार-सर्वसावध योग निवृत्ति में पांच समिति और तीन गुप्ति रूप-पांच प्रकार-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय एवं यथाख्यात । (4) तपाचार-इच्छा निरोध रूप तप का सेवन-बारह भेद-अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति संक्षेप, रस परित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता (बाह्य) प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग एवं ध्यान (आभ्यन्तर)। (5) वीर्याचार-चारों आचारों के पालन में आत्मशक्ति का उपयोग-छत्तीस भेद यानी चारों आचारों के कुल भेद। क्या आचार है और क्या अनाचार है? इसके स्वरूप को समझने के लिए कहा गया है कि अतिक्रम, व्यक्तिक्रम, अतिचार और अनाचार के दोषों से संयुक्त होने पर आचार का स्वरूप अनाचारमय हो जाता है। आचार का अभाव अनाचार होता है। आचार तथा अनाचार के लिए आचीर्ण और अनाचीर्ण शब्दों का भी प्रयोग हआ है। चार आचीर्ण बताए गए हैं-द्रव्याचीर्ण. क्षेत्राचीर्ण, कालाचीर्ण और भावाचीर्ण। आचार को एक महान् निधि बताया गया है जिसे नाम दिया गया है-आचार प्रणिधि अर्थात् आचार की उत्कृष्ट निधि। जिस साधक को यह प्रणिधि प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन का कायाकल्प हो जाता है। उसका प्रत्येक व्यवहार विवेकयुक्त होता है। संक्षेप में इस प्रणिधि की तीन उपलब्धियाँ हैं-(1) कषाय-विषय आदि से अपनी रक्षा करने और कर्म शत्रुओं को हराने में वह साधक समर्थ हो जाता है। (2) आग में तपे सोने के समान वह पूर्वकृत कर्मों के मैल से रहित बन जाता है। (3) अभ्रपटल मुक्त चन्द्रमा की भांति वह कर्म पटल मुक्त सिद्धात्मा बन जाता है। इसी प्रकार आचार समाधि का भी अमित महत्त्व है। जिस आचार के द्वारा आत्मा का हित होता हो वह है 124
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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