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________________ सुचरित्रम् साधु समान रूप से अपने-अपने जीवन में परिपूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। आचार संसार के व्यवहार को भी संवारता है तो आध्यात्मिक जीवन को भी मुक्ति के द्वार तक पहुँचा देता है। सच यह है कि आचार समग्र साधना का मूलाधार होता है। वस्तुतः विश्व के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय अथवा समाज में आचार की अपनी-अपनी परम्पराएँ हैं तथा उसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता पर पूरा-पूरा बल दिया गया है, परन्तु जैन धर्म में आचार के स्वरूप, भेद-प्रभेद, साधना प्रक्रिया आदि को लेकर जितना सूक्ष्म एवं गंभीर चिन्तन किया गया है उतना अन्य धर्मों में विरल ही है। आचार पर जैन मनीषियों ने न केवल चिन्तन ही किया अपितु उसे अपने जीवन में उतारने हेतु विशेष बल भी दिया। इसी कारण जैन श्रमण संस्कृति की आचार संहिता अत्यधिक कठोरतम है। मानव जीवन की लक्ष्य साधना का मूलाधार है आचार मानव बुद्धि सम्पन्न प्राणी है, इस कारण उसके प्रत्येक कार्य के पीछे कुछ न कुछ प्रयोजन अवश्य होता है। उसके पास बुद्धि से विचार तथा विचार से निर्णय की विशिष्ट शक्ति होती है जिसकी सहायता से वह छोटे-मोटे प्रयोजन नहीं, अपने समग्र जीवन के लक्ष्य का भी निर्धारण करता है। लक्ष्य का अभिप्राय यह कि आचार की दिशा से वह भटके नहीं और लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता ही जाए। जब जीवन का लक्ष्य निर्धारित होता है तो उसकी प्राप्ति का मार्ग भी निश्चित किया जाता है। साध्य के साथ साधनों का तालमेल जरूरी है। अतः सम्पूर्ण ज्ञान का प्रयोग होता है साध्य को समझने में तथा उसकी उपलब्धि के लिए आचार पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। यों मानव जीवन की लक्ष्य साधना का मूलाधार होता है-आचार। चिन्तनीय विषय यह है कि मानव जीवन का लक्ष्य क्या है? लौकिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी? यो लौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टियों में जो भेद किया जाता है वह न तो समुचित है और न ही स्वाभाविक। जीवन को खंडों में विभाजित करके देखना हितकारक नहीं। जीवन को समग्र रूप में देखना चाहिए और उसकी समग्रता यह है कि मानव संसार में जन्म लेता है, संसार के ही वातावरण में बड़ा होता है, संसार की मिट्टी से ही ज्ञान और आचार के पाठ सीखता है तथा इसी संसार में अपने जीवन को उन्नति के चरम शिखर तक भी ले जाने की क्षमता रखता है। नर से ही नारायण का तथा आत्मा से परमात्मा का स्वरूप समक्ष आता है। अतः इस मानव जीवन का लक्ष्य भी एक ही होना चाहिए। __ मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। यह लक्ष्य प्रारंभिक भी है और परम भी यानी आरंभिक भी और अन्तिम भी। मोक्ष का सीधा सादा अर्थ है छुटकारा। मनुष्य छुटकारा चाहता है अप्रिय एवं अहितकारी स्थिति से। ऐसी स्थिति में छुटकारा पाने की मनोदशा क्या मानव जीवन में पग-पग पर पैदा नहीं होती? सब अनुभव करते होंगे कि कभी किसी स्थिति में और कभी अन्य स्थिति से मनुष्य अपना छुटकारा चाहता है। ऐसे मोक्ष का अभिलाषी वह हमेशा बना रहता है। अब मोक्ष के विषय में जो आध्यात्मिक मान्यता है, वह उसका एक अन्तिम छोर है तो दूसरा छोर यहीं पर संसार में है। संसार के 122
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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