________________
सुचरित्रम्
इस कारण चरित्र सम्पन्नता की कसौटी भी कठोर होती है। चरित्र विकास के आरंभिक दौर की यह फलश्रति मानी जाए कि व्यक्ति स्वार्थ, अहंकार आदि विकारों की जटिलताओं से प्रत्यागमन करे-पीछे हटे और इतना पीछे हटे कि उसका कोई भी व्यवहार परपीड़क न हो। दूसरे दौर में वह अपने स्वार्थों को सीमित व मर्यादित बना दे तथा साथ ही परमार्थ की ओर गति बढ़ावे। अन्ततः व्यक्ति के स्वार्थ विलीन होते जाए तथा परहित का आकार वृहत्तर बनता जाए। इस अन्तिम दौर में चरित्र की उत्कृष्टता इस रूप में निखर उठे कि आत्म-कल्याण एवं लोक-कल्याण के क्षेत्र एकीभूत बन जाय जैसे कि सभी प्राणियों के हित एकरूपता में ढल गये हों। जो एक को जानता है वह सबको जान लेता है तथा जो सबको जानता है, वह एक को तो जानता ही है। (जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ-आचारांग सूत्र 1-3-4)।
चरित्र विकास की उत्कृष्ट श्रेणियों में व्यक्ति स्व-पर भेद को क्षीण करता जाता है एवं एकात्मकता की अनुभूति लेने लगता है। तब जीवन में परमार्थ प्रमुख बन जाता है एवं लोकहित के मार्ग पर कैसा भी त्याग उसके लिये बड़ा नहीं होता है। संयम एवं त्याग की अटल साधना उसके चरित्र को उत्कृष्टता की दिव्यात्मा से अनुरंजित बना देती है। चरण गति ही व्यवस्था को परमार्थ से तथा क्रान्ति को आदर्श से जोड़ेगी:
आज प्रगतिगामी क्षेत्रों से क्रांति की आवाज गूंजती है और मांग की जाती है कि वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। परिवर्तन का नाम क्रान्ति है और वह परिवर्तन होना चाहिए व्यापक जनहित की भावना एवं योजना से प्रेरित होकर! क्रान्ति को जो हिंसा पर आधारित मानी गई थी। वह भ्रम अब मिट चुका है। तोड़-फोड़ या खूनखराबा क्रांति के लक्षण नहीं। मानव सभ्यता एवं संस्कृति के जो मूल्य काल प्रवाह अथवा आचरण शिथिलता से विकृत हो जाते हैं। उनका शुद्धिकरण करके उन्हें फिर से प्रतिष्ठित करने के उपक्रम को ही वास्तव में क्रांति कहा जाना चाहिये। ऐसा परिवर्तन और ऐसी क्रान्ति आज आवश्यक मानी जा रही है।
कोई भी व्यवस्था-चाहे वह ग्रामस्तरीय संगठन की हो अथवा राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की या चाहे पारिवारिक संगठन की ही क्यों न हो-वह तभी विकृत बनती है जब उसमें परमार्थ का तत्त्व क्षरित होने लगता है तथा स्वार्थ वृत्ति का घुन लग जाता है। इसी प्रकार अब तक विभिन्न देशों में हुई क्रांतियों के स्वरूप से यह भ्रामक मानसिकता बन गई है कि हिंसा के बल पर टिके शोषण व दमन के निहित स्वार्थियों का अन्त भी हिंसा का सहारा लिये बिना नहीं किया जा सकता है। यह बात नहीं रही कि इन क्रान्तियों के कोई आदर्श नहीं थे। साध्य स्पष्ट था किन्तु साधन के बारे में ही विवाद रहे। इस युग में महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के संदर्भ में कहा कि साध्य की शुद्धता के साथ साधन की शुद्धता भी अनिवार्य मानी जानी चाहिए। इस दृष्टिकोण से उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन को सत्याग्रह, अवज्ञा आदि के अहिंसात्मक प्रयोगों पर आधारित किया और सफलता भी प्राप्त की। ___ तो आज समस्या यह है कि हम व्यवस्था तो बदलें किन्तु उसे परमार्थ पर आधारित बनावे। इसी प्रकार क्रान्ति को इसके सभी चरणों में आदर्श से जोड़े हुए रखे। इस समस्या के सही समाधान के
100