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________________ सुचरित्रम् की ओर ही मुड़ेगा। जब भावनाओं के सिर पर कोरा विचार बैठ जाता है तब संस्कारिता क्षरित होती है, सभ्यता खोखली हो जाती है तथा संस्कृति के तत्त्व भी नष्ट-भ्रष्ट होने लगते हैं, क्योंकि इन सबका आधार चरित्र पतित हो जाता है। चरित्र का पतन ही धर्म का पतन बन जाता है। अतः भावनायुक्त धर्म को फलीभूत करना है तो चरित्र का नव-निर्माण करना होगा। मानवीय मूल्यों को अर्थ और विग्रह के दलदल से बाहर निकाल कर मानव धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करनी होगी और वास्तव में आज ऐसे लक्षण प्रकट होने लगे हैं जिनसे यह अनुमान पुष्ट होता है कि सच्चे धर्म की संभावनाओं के खुलने और खिलने का समय अब ज्यादा दूर नहीं है। जहां धर्म के प्रति केवल विश्वास का प्रश्न है तो वह अन्तिम आश्रय है, परन्तु उसे बुद्धि का पूरक भी होना चाहिए। धर्म के सद्भाव में केवल अंकगणना से ही व्यवहार नहीं चलेगा, बल्कि लोकभावना की भी प्रतीति होगी। ___ अर्थ और काम का क्रम धर्म के पश्चात् रखा गया है। लोकभावना से अनुरंजित होकर धर्म इतना प्रभावशाली बन जाएगा कि अर्थ (सत्ता-सम्पत्ति) स्वयं अपने विकास में स्वार्थ भाव से इतना ऊंचा उठ जाएगा कि परमार्थ की धारणा केवल धार्मिक आदर्श न रहकर सांसारिक व्यवहार की संज्ञा बन जायेगी। अर्थ के लिये किये जाने वाले प्रयत्न का जन्म काम या कामना के गर्भ से होता है। प्रयत्न का मूल काम है और अर्थ उसका फल है। अपने चारों ओर सब जगह अर्थ के मूल में काम को देखा जा सकता है। इसीलिये अर्थ की उलझनों को काटने के लिये निष्कामता का अभ्यास सुझाया गया है। कामना का लोभ कभी रुकता नहीं है और इस कारण सभी कामनाओं की पूर्ति भी असंभव है। अतः निष्काम होना अर्थ को निष्प्रभावी करना है। अर्थ काम पर टिका है, स्वंतत्र नहीं है अत: काम को व्यवस्थित कर लिया तो अर्थ अपने आप व्यवस्थित हो जाएगा। फिर धर्म के प्रभाव से सदैव संतुलन बना रह सकेगा। मोक्ष मंजिल है, यात्रा नहीं और यदि यात्रा सफल हो जाती है तो मंजिल फिर दूर कहां रहती है? यात्रा की सफलता टिकी है पहले के तीनों पुरुषार्थों पर। धर्म, मूलभाव और मूल दृष्टि है, वहीं अर्थ और काम को इन दो तटों की ओर जीवन को विस्तार देने वाले भाव-रूप बनाया जा सकता है। वही दृष्टि फिर दोनों की पारस्परिक अपेक्षा में व्यवस्था देती हुई मोक्ष में समाहित हो जाए तो मान लेना चाहिए कि पुरुषार्थ चतुष्ट्य का इष्ट परिपूर्ण हो गया है। इस परिपूर्णता की उच्चतम श्रेष्ठता का नाम ही चरित्र संपन्नता है। चरण गति और चरण शक्ति समाज तथा संसार में नवप्राण फूंकेगी : __शिशु के दुर्बल चरण सबल होने लगते हैं जब वे गति करने लगते हैं। गति जितनी सधी हुई और तेज होती है, चरण शक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। 'चलो और चलते रहो' की प्रेरणा सब ओर नये उत्साह को जन्म देती है। जो गतिमान है वह श्लाघ्य है और तेजी के आज के युग में तो गति के ग्राफ में जो उछाल आया है उसकी तो पहले कल्पना तक नहीं हुई थी। वामनावतार की तरह आज सूचना तकनीक या तीव्र वाहन वेग से धरती को तीन पग में नाम सकते हैं। इन बाहरी चरणों की तुलना में अधिक भीतरी चरण, आचरण और चरित्र की अधिक गति-शक्ति बन जाए तो निश्चय ही एक ऐसे नये समाज और संसार की रचना हो सकती है। जहां मानव अपनी स्वस्थ मानवता से भी ऊपर
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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