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________________ क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती? नहीं निकलती है, बल्कि अहिंसा के विचार की अनिवार्यता निकलती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अहिंसा के विस्तार के लिये आज जिस प्रकार की पुष्ट आधार भूमि तैयार हुई है। वैसी शायद पहले नहीं हुई हो और यह आधार भूमि प्रेरित करती है कि विश्व की समूची व्यवस्था अहिंसा पर आधारित की जाए तथा यह अहिंसा मात्र व्यवहार की ही बात न हो, अपितु सम्पूर्ण जीवनशैली का रूप धारण कर ले। आज बाह्य दर्शन की हिंसा जैसे अन्तर्दर्शन की अहिंसा को पाठ के रूप में प्रस्तुत करने को ही सामने आई हो। इस घोर हिंसा की स्थिति ने सबके मन मानस में अहिंसा की ललक पैदा कर दी है। हिंसा और अहिंसा के बल के विषय में मनोवैज्ञानिक स्थिति पर भी ध्यान देने की जरूरत है । सोचें कि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति पर अत्याचार करता है तो जिस पर अत्याचार किया जाता है वह तो मात्र हिंसा का उपलक्ष्य होता है तथा लक्ष्य तो स्वयं उसका निज होता है। इस मनोविज्ञान के अनुसार वे लोग, जो सत्ता और शस्त्र लेकर उसकी प्रतिष्ठा में लगे हुए हैं, असल में वे कहीं अपने भीतर की शंका से ही लड़ना चाह रहे हों। मूल रूप से आततायी की मनः स्थिति दयनीय होती है, वह आतंक के द्वारा अपने अहं की तुष्टि चाहता है। अच्छाई और सच्चाई के लिये भी जिन्होंने हिंसक बल का प्रयोग किया, उनमें कहीं आत्म बल की न्यूनता अवश्य रही होगी। सत्य के साथ बल के रूप में अहिंसा का ही मेल हो सकता है। साम्यवादी शासन का प्रयोग एक अच्छे उद्देश्य के लिये हुआ था किन्तु हिंसा को आधार बना लेने के कारण अन्ततोगत्वा वह विफल हुआ। वस्तुत: अहिंसा का बल ही सच्चा बल है- अब इस दिशा में पूरे विश्व की दृष्टि घूम गई है। यह दूसरी बात है कि अहिंसा के विचार को कार्यान्वित करने में कुछ समय लगे, किन्तु आज हिंसा की कोई भी देश वकालत नहीं करता है । अहिंसा के पक्ष में बन रहे इस विश्वजनीन वातावरण का पूरापूरा लाभ उठाया जाना चाहिये । अहिंसा के निष्ठावान अनुयायियों द्वारा इस आन्दोलन को अग्रता प्रदान करते हुए कि अहिंसा को सभी संगठन और धीरे-धीरे सभी राष्ट्र अपनी नीति बना लें ताकि निचले स्तरों पर तो हिंसा का चलन पूरी तरह बंद हो सके। अन्तर्बाह्य जीवन के सृजन से विकास का चक्र नित चलता रहे: दो प्रकार की वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों का स्थान-स्थान पर उल्लेख आया करता है - एक अन्तर्मुखी तो दूसरी बहिर्मुखी । ये दोनों साधन रूप होती है जिसका साध्य है एकता या एकरूपता । जो अन्दर से एक बनता है, बाहर से साथ भी उसका सामंजस्य बढ़ता है अथवा जो बाहर के प्रति अपना संबंध सही बनाता है, वह भीतर में भी शान्त और तृप्त रहता है। आशय यह कि अन्तर्बाह्य जीवन की एकरूपता किसी घिरे वृत्त में या बंद वातावरण में सिद्ध नहीं हो सकती है, कारण वह व्यवहार से निरपेक्ष नहीं रह सकती है। व्यवहार सदा परस्पर के संबंधों के आधार पर बनता है और व्यक्तित्व की आन्तरिक एकता इन संबंध सूत्रों के माध्यम से बाहर प्रभाव एवं सद्भाव उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकती है। व्यक्ति जो विराट बनता है उस विराटता की प्रक्रिया यही है। कोई अपने ही में बड़ा हो - इसका कोई अर्थ नहीं। ऐसा मनमाना बड़प्पन अन्तर्बाह्य एकता का परिचय नहीं देता, बल्कि अहं 89
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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