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________________ आदेशोत्तर और उनका फल अथादेशोत्तराः-पृच्छकस्य वाक्याक्षराणि प्रथमतृतीपञ्चमस्थाने उत्तराः, द्वितीयचतुर्थेऽधराः। यदि दीर्घमक्षरं प्रश्ने प्रथमतृतीयपञ्चमस्थाने दृष्टं तदेव लाभकरं स्यात्, शेषा अलाभकराः स्युः। 'जीवितमरणं लाभालाभं साधयन्तीति साधकाः। अ इ ए ओ एते तिर्यङ्मात्रमूलस्वराः । तिर्यङ्मात्राः तिर्यग्द्रव्यमधोमात्राः अधोद्रव्यमूर्ध्वमात्राः, ऊर्ध्वद्रव्यं तिष्ठन्तीति कथयन्तीत्यादेशोत्तराः। अर्थ-आदेशोत्तर कहते हैं कि प्रश्नकर्ता के प्रथम, तृतीय और पंचमस्थान के वाक्याक्षर उत्तर एवं द्वितीय और चतुर्थ स्थान के वाक्याक्षर अधर कहलाते हैं। यदि प्रश्न में दीर्घाक्षर प्रथम, तृतीय और पंचम स्थान में हों तो लाभ करानेवाले होते हैं, शेष स्थानों में रहनेवाले दीर्घाक्षर अथवा उपर्युक्त स्थानों में रहनेवाले ह्रस्व और प्लुताक्षर अलाभ (हानि) करानेवाले होते हैं। साधक इन प्रश्नाक्षरों पर से जीवन, मरण, लाभ और अलाभ आदि को अवगत कर सकते हैं। अ इ ए ओ ये चार तिर्यङ्मात्रिक मूल स्वर हैं। तिर्यङ्मात्रिक प्रश्न में तिर्यङ्-तिरछे स्थान में द्रव्य; अधोमात्रिक प्रश्न में अधः स्थान में द्रव्य और ऊर्ध्वमात्रिक प्रश्न में ऊर्ध्वस्थान में द्रव्य है, इस प्रकार का प्रश्नफल जानना चाहिए। विवेचन-प्रश्नाक्षरों के नाना विकल्प करके फल का विचार करना चाहिए। पूर्वोक्त उत्तर, अधर, उत्तराधर आदि नौ भेदों का विचार कर सूक्ष्म फल निकालने के लिए आदेशोत्तर का भी विचार करना आवश्यक है। पृच्छक के प्रश्नाक्षरों में प्रथम, तृतीय और पंचम स्थान की उत्तर, द्वितीय और चतुर्थ की अधर एवं अ इ ए ओ इन चार ह्रस्व मात्राओं की तिर्यङ् संज्ञा बतायी है। ग्रन्थान्तरों के अनुसार आ ई ऐ औ की अधो संज्ञा तथा इन्हीं प्लुत स्वरों की ऊर्ध्व संज्ञा है। यदि प्रश्नाक्षरों में प्रथम, तृतीय और पंचम स्थान में दीर्घ अक्षर हों तो लाभकारक तथा शेष स्थानों में हों तो हानिकारक होते हैं। ऊर्ध्व, अधः और तिर्यङ् आदि के विचार के साथ पहले बताये गये संयुक्त, असंयुक्त आदि का भी विचार करना चाहिए। प्रश्न का साधरणतया फल बतलाने के लिए नीचे एक सरल विधि दी जा रही है। निम्न प्रथम चक्र के अंकों पर अंगुली रखवाना चाहिए। यदि पृच्छक आठ या दो के अंक पर अँगुली रखे तो कार्याभाद; छः या चार के अंक पर अँगुली रखे तो कार्यसिद्धि; सात या तीन के अंक पर अँगुली रखे तो विलम्ब से कार्य-सिद्धि एवं नौ, एक या पाँच के अंक पर अँगुली रखे तो शीघ्र ही कार्यसिद्धि फल कहना चाहिए। १. “अथाशकविकटौ वक्ष्यामः। लाभालाभं ज्ञानं साधयन्तीति साधकाः”–क. मू.। २. तिर्यङ्मात्राः मूलस्वराः-ता. मू. । ८८ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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