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मित्रलाभ; मित्रसेवक संज्ञक गणों के होने पर सफलतापूर्वक कार्य सिद्धि; मित्र-शत्रु संज्ञक गणों के प्रश्नाक्षरों में होने पर प्रिय भाई का मरण; मित्र-सम संज्ञक गणों के होने पर कुटुम्ब में पीड़ा; दो सेवक गणों के होने पर मनोरथसिद्धिः भृत्य-शत्रु गणों के होने से शत्रु-वृद्धि; मृत्यु-सम गणों के होने से धननाश; शत्रु-मित्र गणों के होने से शारीरिक कष्ट; शत्रुसेवक गणों के होने से भार्या कष्ट; दो शत्रु गणों के होने से प्रत्यक्ष कार्यहानि; शत्रु-सम गणों के होने से सुख नाश एवं मित्र गणों के होने से सुख होता है। दो सम गण निष्फल होते हैं, सम और मित्रगणों के होने से अल्पलाभ; सम और सेवक गणों के होने से उदासीनता एवं सम और शत्रु गणों के होने से आपस में विरोध होता है। मगण-यगण के होने पर कार्यसिद्धि, रगण के होने से मृत्यु और कार्य नाश, सगण के होने से क्षय रोग अथवा कार्य विनाश और नगण के होने से प्रश्न निष्फल होता है। यदि प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षरों में प्रथम मगण हो तो धन-सन्तान की वृद्धि; रगण हो तो मृत्युतुल्य कष्ट; सगण हो तो विदेश की यात्रा; जगण हो तो रोग; भगण से निर्मल यश का विस्तार और नगण से अखण्ड सुख प्राप्ति सम्बन्धी प्रश्न जानने चाहिए। इस प्रकार गणों का विचार कर प्रश्नों का फल बतलाना : चाहिए। प्रश्नाक्षर सम्बन्धी सिद्धान्त का उपर्युक्त क्रम से विचार करने पर भी चर्या और चेष्टा आदि का भी विचार करना आवश्यक है। क्योंकि मनोविज्ञान के सिद्धान्त से बहुत-सी बातें चर्या और चेष्टा से भी प्रकट हो जाती हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि मनुष्य का शरीर यन्त्र के समान है जिसमें भौतिक घटना या क्रिया उत्तेजना पाकर प्रतिक्रिया होती है। यही प्रतिक्रिया उसके आचरण में प्रदर्शित होती है। मनोविज्ञान के पण्डित पेवलाव ने बताया है कि मनुष्य की समस्त भूत, भावी और वर्तमान प्रवृत्तियाँ चेष्टा और चर्या के द्वारा आभासित होती हैं। समझदार मानव चेष्टाओं से जीवन का अनुमान कर लेता है। अतः प्रश्नाक्षर सिद्धान्त का पूरक अंग चेष्टा-चर्यादि हैं।
दूसरा प्रश्नों के फल का निरूपण करनेवाला सिद्धान्त समय के शुभाशुभत्व के ऊपर आश्रित है। अर्थात् पृच्छक के समयानुसार तात्कालिक प्रश्न कुण्डली बनाकर उससे ग्रहों के स्थान विशेष द्वारा फल कहा जाता है। इस सिद्धान्त में मूलरूप से फलादेश सम्बन्धी समस्त कार्य समय पर ही अवलम्बित हैं। अतः सर्व-प्रथम इष्टकाल बनाकर लग्न सिद्ध करना चाहिए और फिर द्वादश भावों में ग्रहों को स्थित कर फल बतलाना चाहिए।
१. द्रष्टव्यम्-प्र. कु., पृ. १०। २. द्रष्टव्यम्-प्र. कु., पृ. ५-६ । ३. दै. व., पृ. ५। ४. बृ. पा. हो, पृ. ७४१। ५. द्वादशभावों के नाम निम्न प्रकार हैं-तनुकोशसहोदरबन्धुसुतारिपुकामविनाशशुभा विबुधैः। पितृमं तत
आप्तिरयाय इमे क्रमतः कथिता मिहिरप्रमुखैः १-प्र. भू., पृ. ५। होरादयस्तनु-कुटुम्बसहोत्थबन्धुपुत्रारिपलिमरणानि शुभास्पदायाः। रिष्काख्यमित्युपचयान्यरिकर्मलाभदुश्चिक्यसंज्ञितगृहाणि न नित्यमेके॥ कल्पस्वविक्रमगृहप्रतिभाक्षतानि चित्तोत्थरन्ध्रगुरुमानभव्ययानि। लग्नाच्चतुर्थनिधने चतुरस्रसंज्ञेत् न्यूनं च सप्तमगृहं दशमं खमाज्ञा॥
-बृ. जा, पृ. १७-१८ ।
६४ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि