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. विवेचन-ज्योतिषशास्त्र में बिना जन्मकुण्डली के तात्कालिक फल बतलाने के लिए तीन सिद्धान्त प्रचलित हैं-प्रश्नाक्षर-सिद्धान्त, प्रश्नलग्न-सिद्धान्त और स्वर-विज्ञान सिद्धान्त। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रश्नाक्षर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धान्त का मूलाधार मनोविज्ञान है, क्योंकि बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की विभिन्न परिस्थितियों के अधीन मानव मन की भीतरी तह में जैसी भावनाएँ छिपी रहती हैं, वैसे ही प्रश्नाक्षर निकलते हैं। सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता फ्रायड का कथन है कि अबाधभावानुषंग से हमारे मन के अनेक गुप्तभाव भावी शक्ति, अशक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं तथा उनसे समझदार व्यक्ति सहज में ही मन की धारा और उससे घटित होनेवाले फल को समझ लेता है। इनके मतानुसार मन की दो अवस्थाएँ हैं-सज्ञान और निर्ज्ञान। सज्ञान अवस्था अनेक प्रकार से निर्ज्ञान अवस्था के द्वारा ही नियन्त्रित होती रहती है। प्रश्नों की छानबीन करने पर इस सिद्धान्त के अनुसार पूछने पर मानव निर्ज्ञान अवस्था विशेष के कारण ही झट उत्तर देता है और उसका प्रतिबिम्ब सज्ञान मानसिक अवस्था पर पड़ता है। अतएव प्रश्न के मूल में प्रवेश करने पर संज्ञात इच्छा, असंज्ञात इच्छा, अन्तर्जात इच्छा और निति इच्छा ये चार प्रकार की इच्छाएँ मिलती हैं। इन इच्छाओं में से संज्ञात इच्छा बाधा पाने पर नाना प्रकार से व्यक्त होने की चेष्टा करती है तथा इसी के द्वारा रुद्ध या अवदमित इच्छा भी प्रकाश पाती है। यद्यपि हम संज्ञात इच्छा का प्रकाश काल में रूपान्तर जान सकते हैं, किन्तु असंज्ञात या अज्ञात इच्छा के प्रकाशित होने पर भी बिना कार्य देखे उसे नहीं जान सकते। विशेषज्ञ प्रश्नाक्षरों के विश्लेषण से ही असंज्ञात इच्छा का पता लगा लेते हैं। सारांश यह है कि संज्ञात इच्छा प्रत्यक्ष रूप से प्रश्नाक्षरों के रूप में प्रकट होती है और इन प्रश्नाक्षरों में छिपी हुई असंज्ञात और निति इच्छाओं को उनके विश्लेषण से अवगत किया जाता है। अतः प्रश्नाक्षर सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक है तथा आधुनिक पाश्चात्त्य ज्योतिष के विकसित सिद्धान्तों के समान तथ्यपूर्ण है।
प्रश्न करनेवाला आते ही जिस वाक्य का उच्चारण करे, उसके अक्षरों का विश्लेषण कर प्रथम, द्वितीय पाँचों वर्गों में विभक्त कर लेना चाहिए। अनन्तर आगे बतायी हुई विधि के अनुसार संयुक्त, असंयुक्तादि का भेद स्थापित कर फल बतलाना चाहिए। अथवा प्रश्नकर्ता से पहले किसी पुष्प, फल, देवता, नदी और पहाड़ का नाम पूछकर अर्थात्-प्रातःकाल' पुष्प का नाम, मध्याह्र में फल का नाम, अपराह्न में-दिन के तीसरे प्रहर में देवता का नाम और सायंकाल में नदी का नाम या पहाड़ का नाम पूछकर प्रश्नाक्षर ग्रहण करने चाहिए। पृच्छक के प्रश्नाक्षरों का विश्लेषण कर संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित आदि आठ प्रश्नश्रेणियों में विभाजित कर प्रश्न का उत्तर देना चाहिए। अथवा उपर्युक्त पाँचों वर्गों को पृथक् स्थापित कर प्रश्नकर्ता से अक्षरों का स्पर्श कराके, स्पर्श किये हुए अक्षरों को प्रश्नाक्षर मानकर संयुक्त, १. 'पृच्छकस्य वाक्याक्षराणि स्वरसंयुक्तानि ग्राह्याणि। यदि च प्रश्नाक्षराण्यधिकान्यस्पष्टानि भवेयुस्तदाऽयं विधिः ।
यदि प्रश्नकर्ता ब्राह्मणस्तदा तन्मुखात्पुष्पस्य नाम ग्राहयेत्। यदि प्रश्नकर्ता क्षत्रियस्तदा कस्याश्चिम्नद्या नाम ग्राहयेत्। यदि प्रश्नकर्ता वैश्यस्तदा देवानां मध्ये कस्यचिद्देवस्य नाम ग्राहयेत् । यदि प्रश्नकर्ता शूद्रस्तदा कस्यचित् फलस्य नाम ग्राहयेत्।”-के. प्र. सं., पृ. १२-१३r .
६२ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि