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६. पृच्छक से किसी फूल का नाम पूछकर उसके स्वरों को व्यंजन संख्या से गुणा कर तीन का भाग देने पर दो शेष में विजय और एक तथा शून्य शेष में पराजय होती है।
ग्रन्थकार
इस ग्रन्थ के रचयिता समन्तभद्र बताये गये हैं। ग्रन्थकर्ता का नाम ग्रन्थ के मध्य या किसी प्रशस्तिवाक्य में नहीं आया है। प्रारम्भ में मंगलाचरण भी नहीं है। अन्त में प्रशस्ति भी नहीं आयी है, जिससे ग्रन्थकर्ता के नाम का निर्णय किया जा सके तथा उसके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त की जा सके। केवल ग्रन्थारम्भ में लिखा है-“श्री समन्तभद्रविरचित-केवलज्ञानप्रश्नचूडामणिः”। मूडबिद्री से प्राप्त ताड़पत्रीय प्रति के अन्त में भी 'समन्तभद्रविरचितकेवलज्ञानप्रश्नचूडामणिः समाप्तः' ऐसा उल्लेख मिलता है। अतः यह निर्विवादरूप से स्वीकार करना पड़ता है कि इस ग्रन्थ के रचयिता समन्तभद्र ही हैं।
यह समन्तभद्र कौन हैं, इन्होंने अपने जन्म से किस स्थान को कब सुशोभित किया है? इनके गुरु कौन थे, इन्होंने कितने ग्रन्थों का निर्माण किया है, आदि बातों के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। समन्तभद्र नाम के कई व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने जैनागम की श्रीवृद्धि करने में सहयोग दिया है। तार्किक-शिरोमणि सुप्रसिद्ध श्रीस्वामी समन्तभद्र तो इस ग्रन्थ के रचयिता नहीं हैं। हाँ, एक समन्तभद्र जो अष्टांगनिमित्तज्ञान और आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता थे, जिन्होंने साहित्य शास्त्र का पूर्ण परिज्ञान प्राप्त किया था, इस शास्त्र के रचयिता माने जा सकते हैं।
'प्रतिष्ठातिलक' में कविवर नेमिचन्द्र ने जो अपनी वंशावली बतायी है, उससे 'केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि' के रचयिता के जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। वंशावली में बताया गया है कि कर्मभूमि के आदि में भगवान् ऋषभदेव के पुत्र श्रीभरत चक्रवर्ती ने ब्राह्मण नाम की जाति बनायी। इस जाति के कुछ विवेकी, चारित्रवान्, जैनधर्मानुयायी ब्राह्मण कांची नाम के नगर में रहते थे। इस वंश के लोग देवपूजा, गुरुवन्दना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट् कर्मों में प्रवीण थे। श्रावक की ५३ क्रियाओं का वे भलीभाँति पालन करते थे। इस वंश के ब्राह्मणों को विशाखाचार्य ने 'उपासकाध्ययनांग' की शिक्षा दी थी, जिससे वे श्रावकाचार का पालन करने में तनिक भी त्रुटि नहीं करते थे। जैनधर्म में उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। राजा-महाराजाओं द्वारा वे स्तुत्य थे। इस वंश के निर्मल बुद्धिवाले कई ब्राह्मणों ने दिगम्बरीय दीक्षा धारण की थी। इस प्रकार इस कुल में व्रतपालन करनेवाले अनेक ब्राह्मण हुए। ___ कालान्तर में इसी कुल में भट्टाकलंक स्वामी हुए। उन्होंने अपने वचनरूपी वज्र द्वारा वादियों के गर्वरूपी पर्वत को चूर-चूर किया था। उनके ज्ञान की यशःपताका दिग्दिगन्त में फहराई। इसके पश्चात् इसी वंश में सिद्धान्तपारगामी, सर्वशास्त्रोपदेशक इन्द्रनन्दी नाम के आचार्य हुए। अनन्तर इस वंश में अनन्तवीर्य नाम के मुनि हुए। वह अकलंक स्वामी के कार्यों को प्रकाश में लाने के लिए दीपवर्तिका के समान थे। पश्चात् इस वंशरूपी पर्वत पर वीरसेन नामक सूर्य का उदय हुआ, जिसके प्रकाश से जैनशासनरूपी आकाश प्रकाशित हुआ।
इस वंश में आगे जिनसेन, वादीभसिंह, हस्तिमल्ल, परवादिमल्ल आदि कई नरपुंगव
५६ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि