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अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच पूश्किन का जन्म 26 मई 1799 को मास्को में हुआ। उनके पिता सेर्गेई पूश्किन प्राचीन बोयारों के वंशज थे जो तत्कालीन रूसी शासकों की सेना में सम्मानित पदों पर बहाल थे। कविता लेखन के प्रति बचपन से ही विशेष लगाव का ही परिणाम था कि मात्र बारह वर्ष की उम्र ( 1811 ) में ही उनकी कविताएँ प्रकाशित होने लगी थीं। शिक्षा प्राप्त करने के बाद पूश्किन ने युवावस्था के आरंभिक वर्षों में पीटर्सबर्ग में प्रवास के दौरान विदेश विभाग की नौकरी के साथ प्रगतिशील साहित्य परिषद 'अर्ज़ामास' की स्थापना की और अपनी क्रान्तिकारी कविताओं के लिए चर्चित हो गये। सत्ता-विरोधी रचनाओं और विचारों के लिए दण्डित पूश्किन ने कई छोटी-बड़ी कविताओं और उपन्यासों की रचना की। वर्ष 1826 में निर्वासन से छूट कर वे मास्को लौटे और उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और इतिहास - सभी विधाओं में जमकर लेखन किया। एक द्वन्द्व युद्ध में घायल होने के बाद मात्र 38 वर्ष की आयु में उनका असामयिक निधन 29 जनवरी 1837 को हो गया। अपनी क्लासिकी रचनाधर्मिता के साथ लेखकीय स्वतंत्रता और सामाजिक प्रतिबद्धता से आश्चर्यजनक तालमेल रखनेवाले इस महान कवि का रूस की धरती पर आविर्भाव एक ऐसे देवदूत कवि के रूप में हुआ था जिसके मुँह में साँप की जीभ थी और सीने में धधकते अंगारे।
प्रस्तुत संकलन में संकलित कविताओं का मूल रूसी से अनुवाद डॉ. वरयाम सिंह ने किया है। आपका जन्म 1948 में बाहू (बंजार) कुल्लू, हिमाचल प्रदेश में हुआ। आरम्भिक शिक्षा के बाद रूसी अध्ययन संस्थान, दिल्ली से बी.ए. ( आनर्स) किया। मास्को राजकीय विश्वविद्यालय में रूसी साहित्य का विशेष अध्ययन तथा वहीं से पी-एच.डी. करने के बाद आप 1972 से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन कर रहे हैं। आपके रूसी कविताओं के दस अनुवाद संकलन हिन्दी में प्रकाशित हैं - जिनमें उल्लेखनीय हैं- आयेंगे दिन कविताओं
के (त्स्वेतायेवा), निकॉलाइ रेरिख की कविताएँ एवं कविता विषयक रूसी कविताएँ। साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित बीसवीं सदी की रूसी कविता तनी हुई प्रत्यंचा और मना (किर्गीज़ महाकाव्य) के लिए विशेष प्रशंसा अर्जित । अनुवाद के लिये सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार तथा कविता के लिए हिमाचल अकादमी पुरस्कार प्राप्त ।