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परिशिष्ट-१
नक्षत्रों के नाम अश्विनी, भरणी कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती ये २७ नक्षत्र हैं। धनिष्ठा से रेवती तक पाँच नक्षत्रों में पंचक माना जाता है। अश्विनी, आश्लेषा, ज्येष्ठा,
मूल और रेवती इन पाँच नक्षत्रों में जन्मे बालक का मूल दोष माना जाता है। कोई-कोई . मघा नक्षत्र को भी मूल में परिगणित करते हैं। आश्लेषा नक्षत्र को सर्पमूल और ज्येष्ठा को
गण्डान्तमूल कहते हैं। मूल नक्षत्र के प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण का जन्म अशुभ माना जाता है। कोई-कोई अभिजित् को २८वाँ नक्षत्र मानते हैं। ज्योतिर्विदों का अभिमत है कि उत्तराषाढ़ा की अन्तिम १५ घटियाँ और श्रवण के प्रारम्भ की ४ घटियाँ, इस प्रकार १६ घटियों के मानवाला अभिजित् नक्षत्र होता है। यह समस्त कार्यों में शुभ माना गया है।
योगों के नाम विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान्, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान्, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृत ये २७ योग हैं।
करणों के नाम बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनी, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न ये ११ करण हैं। तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं।
समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य जन्मनक्षत्र, जन्ममास, जन्मतिथि, व्यतीपातयोग, भद्रा, वैधृतियोग, अमावस्या, क्षयतिथि, वृद्धितिथि, क्षयमास, अधिकमास, कुलिक, अर्द्धयाम, महापात, विष्कम्भ योग की प्रथम पाँच
परिशिष्ट-१ : १६५