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89 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
गुणस्थान में प्रवेश के पूर्व, जीव मिथ्यात्व में ही जीता है। जीव का तब तक अभव्य स्वरूप है। उसे भगवान के बताये महाव्रत जैसे अहिंसा, सत्य अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य (संयम) में तनिक रूचि नहीं होती वरन् इससे विपरीत आचरण में पूरा पूरा रस आता है । वह अनंतानुबंधी कर्म बंधन करता है यानी भंयकर क्रोध, वैर, प्रतिशोध, हिंसा, दम्भ, पाखण्ड, अभिमान, असत्य व्यवहार कदम-कदम पर आनंद अनुभव करता है। कपट पूर्ण आचरण, कथन, निर्दय व्यवहार एवं लोभ में सर्वथा अंधा होकर, अनेक कुकृत्य करता है । जैसे विषेले सांप का काटा हुआ व्यक्ति कितना ही तम्बाकू का काढा पी जावे, ऊँट का चीड़ (पेशाब) पीले तो भी उसे कड़वा चरका नहीं लगता, उसी तरह मिथ्यात्वी को असत्य, प्रिय लगता है, गलत काम अच्छा लगता है, पापानुबंधी पापों . (कृष्ण लेश्या) के काम करता है। दूसरी अवस्था में सांसादन यानी ऊँचे गुणस्थान से गिर कर दूसरे गुणस्थान में आना, जैसे खीर ख़ाकर वमन करने पर खीर का मुँह में कुछ स्वाद रहना । तीसरे गुणस्थान में उसे यह ध्यान रहता है कि सही रास्ता क्या हैं एवं गलत क्या हैं? लेकिन गलत को वह छोड़ नहीं पाता ।
अतः सम्यग्दर्शन जब जीव को होता है, उसकी इस नैराश्यजनक अंधकारम्य अवस्था में, आशा का दीप जलता है। रास्ता स्पष्ट होने लगता है। पहली बार उसे बोध होता है कि यही सत्य मार्ग है। सत्य कथन जो वीतराग जिनेश्वर का कथन है उसमें श्रद्धा जागती है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र का स्वतः वरण करता है एवं आगे-आगे व्रत, अप्रमाद, कषाय-विजय से उत्तरोत्तर उर्ध्वारोहण कर मोक्षमार्ग की ओर बढ़ता है।
अब सम्यग्दर्शन के मूल कारण या आठ अंगों का वर्णन करते हैं, "निःशंकिय निकंखिय निवितिगिच्छा, अमूढदिट्ठिय, उववूह, थिरिकरणे, वच्छल, प्रभावना, अट्ठ" । इन्हें किंचित विस्तार से समझते हैं। सम्यग्दर्शन का आविर्भाव इन गुणों पर अवलम्बित
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