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81/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार बारस अंगोजिणक्खाओं, सज्झाओं देसिओ बुहेहिं। ते उवइसंति जम्हा उवझाया तेणवुच्चंति
__-(आव.नि. 995) 20. नमो लोएव्वसाहूणं ।।
भाव रूप से जो समस्त विश्व में साधु हैं उन्हें वंदन हैं।
जगत उपयोगी, सर्वहितार्थ, कार्यों में समर्पित सभी को इसमें वंदन है। जाति-पाति, लिंग, क्षेत्र की सीमा से परे। जिन्होंने समता को वरण कर लिया है, मोक्ष मार्ग के पथगामी हो गये हैं, उन सबको नमस्कार किया गया है। परिग्रह के बंधन तोड़ जो अपरिग्रही हो गये हैं, निर्ग्रन्थ हैं। जिनके स्वार्थ छूट गए हैं। भावों को संयत कर लिया है। साधु का तात्पर्य केवल द्रव्य साधु नहीं बल्कि भाव साधु है, स्वादु नहीं, श्रमण हैं, इन्द्रिय-निग्रह जिन्हें वरण हो गया है। सादा जीवन एवं उच्च विचार जिनके लक्ष्य हैं। जो वास्तव में निष्कपट सरल हो गये हैं। जो दस धर्म, 12 तप पालते हैं, 12 भावनाओं से भावित हैं, स्याद्वाद, अनेकांतवादी एवं आग्रह विहीन बन गए हैं। आडम्बर, अभिमान, पाखण्ड से जो कलुषित होना नहीं चाहते। सत्य के लिए सरल बन गये। क्षुद्र स्वार्थ से रहित हो गएं। जहाँ भी जिस रूप में जो जीव मात्र पर करूणा एवं अहिंसा के भावों से ओत प्रोत होते हैं। जिन संतों ने मानव जीवन को श्रेष्ठता पर पहुंचाया, उनके उदार प्रशंसक बन गए ताकि उनमें भी उन्मुक्त रूप से वे ऐसे भाव आवे। महाव्रतों, समितियाँ, गुप्तियों का जो वरण करते हैं, त्याग इनका जीवन बन गया है खुली पोथी की तरह। संसार के विस्तार की निस्सारता की जगह ऊर्जा को लक्ष्य की ओर केन्द्रित कर लिया हो, सिद्धि त्रिरत्न ही जिनका लक्ष्य है। जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, वीर्याचार, तपाचार का निम्न रूप से पालन करते हों। (1) कालविणये, बहुमाण, उवहाणे, तहय निण्हवणे। वंजण अत्थतदु भए अविहा, नाणमायारो।।
(अतिचार गाथा सूत्रम)