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________________ 77/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार 16. ऐसे स्वानुशासित आचार्य, अन्य शिष्यों एवं समस्त श्रावक श्राविका संघ तथा सभी जातियों आदि के लिए प्रकाश पुंज होते हैं। अनुकरणीय होते हैं। सहज श्रद्धा, आदर के पात्र होने से उनका सारे समाज पर अनुशासन स्थापित होता है। नेतृत्व के गुण प्रखर होते हैं। 'वीर प्रभु का शासन जयवंत वर्ते ' उसके वे सजग प्रहरी एवं प्रेरक होते हैं। सूत्रधार होते हैं। शिष्यों, श्रीसंघ सब मे धर्म के प्रति आस्था एवं उत्साह बढ़े, ऐसे लोकोपयोगी, संयम, शिक्षा, दीक्षा-प्रचारप्रसार कराते हैं। इसलिए वे संघपति, पट्टधारक, गच्छाधिपति, आचार्य कहलाते हैं। अहंकार, ममकार को मिटाकर, मिथ्यात्व हटाने की सुशिक्षा देते हैं। संघ के सर्वांगीण आध्यात्मिक विकास कराने में सचेष्ट रहते हैं, वे स्वयं रोद्र ध्यान त्यागे हुए होते हैं। 17. इस हेतु आचार्य देश काल के अनुसार धर्मचक्र प्रवर्तन करते हैं। अतः तदनुसार उनका व्यापाक दृष्टिकोण अत्यावश्यक हो, ताकि धर्म को प्रासंगिक बना सकें। हिंसा से त्रस्त मानवता, आणविक शस्त्रों की होड़ की कमी, विश्व युद्धों की विभीषिका, शस्त्रास्त्रों की लिप्सा तथा शोषण को रोका जा सके। स्याद्वाद के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति से विचार सहिष्णुता में वृद्धि हो। एक पक्षीय दृष्टि की जगह, जैन दर्शन के स्वर्णिम सिद्धान्त 'अनेकान्त दृष्टि' से समस्त जैन पहले स्वयं अभिभूत हों। फिर अन्य लोग भी उनसे अनुकरण कर सकें। अपरिग्रह में भी पहल की जा सके। असंयमित जीवन की इस बेतहाशा मृगतृष्णा के युग मे वीतरागता की आवश्यकता को चरितार्थ किया जा सके। अतः वे धनपतियों, मायावियों एवं उनेक द्वारा बनाये प्रासादों के समान स्थानकों, आदि से प्रभावित न हों। केवल शास्त्रीय परिकल्पनाओं के संकुचित दायरे से उठकर जीव एवं जगत के लिए प्रासंगिक बनें। मानव की ज्वलंत समस्याओं का निदान, वीरप्रभु की
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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