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नवकार महामंत्र/68
5. नमो अरिहंताण से विनय तप सधता है। उससे गुणों का
प्रसाद मिलता है। अटूट लगने वाली भवसागर की अन्तहीन श्रृंखला जो वैर प्रतिशोध, भय, अदम्य इच्छाएँ लालसाओं की मृगमरीचिका के समान है। आर्तरौद्र परिणामों से जिनके सौष्ठव, भाव-विवेक, प्लुष्ट यानी झुलुस चुके हैं.. उनके जीवन मे प्रायश्चित, संलीनता, काउसग्ग, मौन, ध्यान से, शांति- सुधारस की वर्षा करता है। राह सुलभ हो जाती
6. इसका प्रथम एवं द्वितीय पद 'नमों अरिहंताणं' एवं 'नमो सिद्धाणं' है। अरिहंत शिखर हैं, सिद्ध भी शिखर हैं। अंतिम मंजिल है। जबकि अन्य तीन पदों 'नमो आयरियाणं', नमो उवज्झायाणं', 'नमो लोए सव्वसाहूणं ये मार्ग हैं लगता है कि शिखर रह गये हैं, राहें लुप्त हो गई हैं। लेकिन यदि राहें सही हैं तो शिखर भी प्राप्त होंगे। प्रभु के शासन में चतुर्विध संघ (श्रावक-श्राविका, साधु- साध्वी) के विधान को इतना महत्व दिया गया है। प्रत्येक आत्मा अलग अलग स्तर पर होगी अपने विकास की स्थिति में। उसे अपना गन्तव्य स्वयं ढूँढना है। सारे अनुभवों से प्रत्यक्ष गुजरना है। मील के पत्थर एवं राहें मार्गदर्शक हो सकती हैं। दोनों का पारस्परिक महत्व है। स्वंय वीर प्रभु ने केवल्य के बाद भी 30 वर्षों तक पैदल विहार कर जन-जन को उपदेश दिया है। धर्म को युग के लिये प्रासंगिक बनाया है, यद्यपि उसके सिद्धान्त सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक थे। उनके उपदेश जो सूत्र रूप में सार रूप में थे, उन्हें गणधरों ने आगम में रचा, सूत्रबद्ध किया। रत्नत्रय का विस्तीर्ण ज्ञान-पथ प्रशस्त किया, लोक-भाषा में। अतः श्रावक जो भावसाधु भी बन सकते है, वे तथा भेष एवं भावयुक्त साधु सच्ची राहें बन, भव्य जन-जन के लिए पुनः उन उत्तुंग शिखरों को, उन किरीटों