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जैन दर्शन एवं बाईबिल में महत्वपूर्ण समानता / 44
श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान के धारक थे। राजकुल में पैदा होते हुए भी जगत के सुखों से उदासीन थे। उनके माता-पिता एवं बड़े भाई उन्हें संसार में रहने के लिए बाध्य करते थे लेकिन उन्होंने अपनी धन सम्पत्ति का वर्षों दान किया । इशु ने भी कहा, "पाप से मन फिराओ और प्रभु की ओर लौट आओ । धन्य हैं वे जो दीन एवं विनम्र है क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। यहाँ पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो, यहाँ नष्ट हो सकता है, चोरी हो सकता है । स्वर्ग में धन इकट्ठा करो जहाँ इसका मूल्य कभी नहीं घटेगा | वहीं तुम्हारा मन भी रहेगा जहाँ तुम्हारा धन है । कुबेर के पूजक ईश्वर के पुजारी नहीं हो सकते। ऊंट का सूईं की नोंक से जाना सरल है लेकिन धनवान का स्वर्ग में जाना कठिन है।" यहाँ स्वर्ग से तात्पर्य मोक्ष से है। प्रश्न व्याकरण सूत्र आगम में परिग्रह के लिए भगवान महावीर ने कहा " अर्थ ही अनर्थ करता है। इससे आसक्ति होती है । अन्त समय तक देवों एवं इन्द्रों को तृप्ति नहीं ।" राजा के अधीन कितने अफसर, नौकर, सेना, सार्थवाह, दास - दासी भार्याएं एवं भोगों उपभोगों की सामग्री, मणी, कंचन होती है फिर भी यह सब कुछ अशरण है । अधुवम है, चंचल है । परिग्रह पाप कार्यों का मूल है। ये हिंसा करवाते हैं । इनके हेतु झूठ बोलते हैं। अपमान, यातनाएँ सहते हैं । फिर भी अप्राप्त की तृष्णा एवं प्राप्त में वृद्धि बनी रहती है। मनुष्य को प्राणों से हाथ धोना पड़े उसे पाने में, एवं रक्षा करने में सदा भयग्रस्त रहता हो, लेकिन पदार्थ तो अपने साथ बंधते नहीं, हम बंध जाते हैं । "प्रशंसा युक्त शब्द सुनने से साधू राग न करें । वाद्ययंत्रों पर मुग्ध न हों, आभूषणों की मधुर घटियों की ध्वनि सुनकर प्रमुदित न हों । तरूणों - रमणियों के हास्य की, स्नेही जनों द्वारा भाषित प्रशंसा - वचनों की आकाँक्षा न करें, मनोज्ञ पर राग नही । स्त्रियों के सुन्दर अंगों की ओर आकर्षित न हों। ऐसे पुराने स्मरण से मुँह मोड़ें। आहार संयत करें। रसयुक्त प्रणीत - भोजन न करें । ब्रह्मचर्य भी साध्य हो सकेगा । ऐसा अपरिग्रह जिसने पा लिया वह देह से ज्यादा आत्मिक आनन्द, वीतराग के समभाव आदि को पा
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