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39 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
लिया। उसके सारे क्रोध के वे भाजन बने। उनकी ममतामयी करूणा ने उन पर किये गये वार विफल कर दिये । वह प्रभु चरणों में गिर पड़ा, वैरभाव भुलाकर ।
उन्हीं दिनों दुज्यंत आश्रम में ध्यान करते हुए, अकालग्रस्त - प्रदेश की गऊएं, उनकी कुटिया के छप्पर को तोड़ ले जाने पर आश्रमवासियों द्वारा उन्हें उलाहना मिला। तब आत्मसाधना हेतु उन्होंने और कठोर व्रत लिया। जहाँ अवमानना - घृणा न हो, वहाँ रहकर खण्डहरों- वीरान जंगलों में ध्यान किया जाये, अधिकांशत मौन रखा जाये, देह धारण के लिए अंजलि में आहार लिया जाये मुक्ति - पथ की इस लम्बी यात्रा में कुल (42) चौमासे, (प्रति वर्ष में एक ) निम्न संख्या में किये गयेअस्थिग्राम ( 1 ), चंपापीशी ( 3 ), वैशाली तथा बनियाग्राम (12), राजगिरी तथा नालन्दा ( 14 ), मिथिला ( 6 ), बदिधित्ता (2), अलाबिया (1), पानिया भूमि (1) सावत्थी ( 2 ) एवं पावा ( 1 ) ।
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इसी प्रकार अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य, अचौर्य एवं ब्रह्मचर्य के कठोरतम प्रयोग किये। अनार्य देश की भी यात्राऐं कीं, जहाँ उन पर कुत्ते छोड़े गये, उन्हें काटा गया, बांधा गया, गुप्तचर समझकर उन्हें यातनाएं दी गयीं, यहाँ तक की शूलि पर चढ़ाने या बलि के . लिए ले जाया गया, फिर भी अहिंसा - पथ से विचलित नहीं हुए ।
साधना काल के प्रथम वर्ष में ध्यान अवस्था में ग्वाले ने अपने बैल सौंपे और पुनः न मिलने पर एवं उत्तर न पाने पर उन्हें चर्म जुए से निर्ममता पूर्वक पीटा। इन्द्र उनकी रक्षा के लिए उपस्थित होने पर उसे कहा, "आत्म मुक्ति का मार्ग स्वावलम्बन का मार्ग है। इसमें किसी के सहारे की आवश्यकता न कभी रही है और न कभी रहेगी।" साधना काल के लगभग बारह वर्ष छ: माह में केवल 349 दिन (11 माह 19 दिन) छोड़कर शेष दिन (4166) उपवास किये। यहाँ तक कि कुछ निर्जल - उपवास भी किये। दीर्घ तपस्या के उपवास निम्न अंतराल से किये जैसे छ: माह में 5 दिन कम वाला एक दीर्घ उपवास, चार माह वाले 9 बार