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143/ जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
में अनुकम्पा भाव, छः काय के जीवों की विराधना न करना, संयमित जीवन, अपवचन सुनकर भी क्रोध न करना आदि हैं।
दर्शन एवं चारित्र मोहनीय कर्म सबसे बड़ा धाति कर्म है। केवली प्रणीत धर्म में दोष ढूंढना, भंयकर कषायों के उद्य में बह जाना, धर्म गुरु की निन्दा, दुःखी लोगों का उपहास करना, दु:खी बनना और दुःखी बनाना, ये सब दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय के परिणाम हैं। आरम्भ, परिग्रह नरकायु का बंधन कराता है। इसके विपरीत अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह, विनम्रता, सरलता, कपट रहित होना, मनुष्य आयु प्रदान कराता है। देवगति के लिए भी सराग-संयम, अकाम निर्जरा, परीषह सहना इत्यादि आधार बनते हैं। नाम कर्म भी शुभ और अशुभ होते हैं, जो अपने भाव परिणाम पर निर्भर हैं, जैसे निंदा करना, नीचा दिखाना एवं इसके विपरीत होने पर शुभ नाम कर्म बंधता है । नीच गोत्र का भी मुख्य कारण दूसरों के गुणों को भी बुरा बताना स्व-प्रशंसा करना आदि हैं । अंत में किसी के दान, लाभ, भोग, उपभोग, उत्साह में अन्तराय डालना अन्तराय कर्म का बंधन कराता है। योग, वक्रता विसंवादनच अशुभ नामस्यः ।
सातवां पाठ संवर के बारे में है । किस रूप में हम कर्मों से बचे जैसे सब जीवों से मैत्री भाव, गुणी जनों से प्रमोद भाव, दुःखी प्राणियों के लिए करूणा भाव एवं वृथा अभिमानियों के लिए तटस्थ माध्यस्थ भाव रखना उचित है । व्रत तभी फलदायक होगा जब मन में शल्य, कपट, फल की इच्छा एवं मिथ्यात्व नहीं हो | श्रावक व्रतों में पंच महाव्रत, अहिंसा, सत्य, आचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के अलावा तीन गुणव्रत और चार शिक्षावक्रत आते हैं जैसे दिगव्रत, किन्ही दिशाओं की सीमा में आना जाना, या देशव्रत या उसके और छोटे प्रदेश में आवागमन या अनर्थदण्ड विरमण व्रत अर्थात निरर्थक ही ऐसे कार्य जैसे अति-क्रोध, हिंसा - जनक, खेलकूद, कपट व्यवहार, वृथा - प्रलाप आदि हैं। इसके अलावा शिक्षाव्रतों में सामायिक, पौधाधोपवास सीमित चीजों का