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परमश्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरी की अन्तिम देशनामय सरलार्थ एवं श्रद्धांजलि/138
गहन अध्ययन आवश्यक है लेकिन दंभी को ऐसा ज्ञान विनम्रता बिना नहीं मिल सकता। हठ एवं दुराग्रह अवांच्छनीय हैं। देश, काल एवं क्षेत्र की स्थिति के अनुसार धर्मचक्र के सिद्धान्तों, व्यवहारों में भी परिवर्तन होते हैं एवं आवश्यक हैं । अनेकांत दृष्टि से सिद्धान्तों को एंव व्यवहारों को देखना चाहिए।
कर्म बन्धन से बचने के लिए संवर, संयम, तप, प्रमाद-त्याग, व्रत एवं कषायों को कृश यानि पतला करना जरूरी है। साधु, साध्वी शारीरिक शक्ति के रहते भ्रमणशील रहें। ज्यादा एक जगह वास करने से रूके हुए पानी में जैसे जीव जन्तु पड़ जाते हैं वैसे ही साधु के पुरूषार्थ एवं साधना में दखल होता है। मंदिर, उपासना स्थल जहाँ आवश्यक हो वहाँ जाएँ लेकिन उज्ज्वल धर्म साहित्य की वृद्धि करना जिनवाणी आगम का सही अर्थों में अधिक प्रचार, प्रसार जो जैनत्व की अमूल्य धरोहर है उसमे वृद्धि करना श्रावक एवं साधु दोनों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
स्वयं गुरुदेव ने फरमाया कि इसी ध्येय से उन्होंने अथाह आगम-समुद्र को मथकर 'अभिधान राजेन्द्र कोष' बनाए जो सभी. धर्मों, शास्त्रों के अध्ययन करने वालों के लिये मार्गदर्शन करेंगें। "यह ज्ञान शरीर सदैव आपके साथ रहेगा और मार्ग प्रशस्त करेगा।" संक्षेप में मुख्यतः साधु आत्मकल्याण के रत्नत्रय-सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चरित्र, को संजोकर रखें, उसमें वृद्धि विकास करें
और उसका लोककल्याण के लिए बिना आग्रह एवं अभिमान के उपयोग करें। इससे समस्त चतुर्विद संघ, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं का कल्याण होगा।
जन-जन के आराध्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसुरी जी द्वारा विशिष्ट त्रिस्तुतिक संघ की स्थापना का ध्येय था कि छोटे मोटे देवी देवता, भोपे, ओझें, तांत्रिक, पाखण्डियों, यज्ञ, टोने, अन्धविश्वास, जादू, चमत्कार के चक्कर-बाजी से बचें तथा मात्र वीतराग प्रभु की शरण स्वीकारें, जिन्होंने स्वयं मोक्ष वरण किया है वे ही अन्य को भी मोक्ष दिला सकते हैं। "तिन्नाणं तारियाणं, मुत्ताणं मोअगाणां"।